
फिल्म की बात तो करेंगे ही लेकिन ज्यादा जरुरी है उस पर बात करें जिसे इस फिल्म ने भरपूर सम्मान दिया है ! फिल्म में पल्प फिक्शन राइटर दिनेश पंडित को बार बार उद्धत किया गया है, फिल्म का क्लाइमेक्स उनकी किताब कसौली का कहर से प्रेरित है ऐसा फिल्म में ही बताया गया है ! हीरोइन रानी कश्यप पंडित जी की दीवानी है, उनके नॉवेल्स मसलन डकैती ६० लाख की , प्यार का आतंक , हवस का आतंक आदि में वर्णित संवादों को मौके मौके पर दोहराती भी है !

एक राज, चूंकि फिल्म का नहीं है , बता दूँ दिनेश पंडित काल्पनिक है और उनकी पुस्तकें भी काल्पनिक है ! परंतु कनिका ढिल्लन की कहानी किसी पल्प फिक्शन सरीखी ही है और इसलिए हैट्स ऑफ़ टू कनिका ! आखिर हिंदी पल्प फिक्शन की विधा को अडॉप्ट ही नहीं किया बल्कि उसपर बेहतरीन कास्ट एंड क्रू को लेकर फिल्म भी बना डाली ! वरना तो उस दौर में जब पल्प साहित्य फुटपाथों की, रेलवे बुक स्टॉल्स की रौनक हुआ करते थे और आम हिंदुस्तानी खूब खरीदता भी था और दो चार घंटे में ही निपटा देता था, इन्हें पढ़ना निचले दर्जे की हरकत समझी जाती थी ! किसी सज्जन व्यक्ति को पढ़ते देख लिया या सुन लिया तो उसे यूँ देखा जाता था मानों वेश्या के कोठे से निकला हो जबकि हकीकत में हिकारत का प्रदर्शन करने वाले कुलीनता का लबादा ओढे वो लोग भी इस साहित्य को छिप छिप कर खूब पढ़ते थे।

वैसे बता दूँ फिल्म में जिन लुगदी किताबों का जिक्र हैं उनके शीर्षक सत्तर अस्सी के दशकों में सुने सुने से लगते हैं ! मसलन सुरेंद्र मोहन पाठक की विमल सीरीज का एक उपन्यास था ६५ लाख की डकैती जिसका इंग्लिश वर्शन the sixty five lakh heist भी आया था। हवस का आतंक और प्यार का आतंक भी खोजे मिल जाएंगे। दिनेश पंडित नाम वेद प्रकाश शर्मा के किरदार केशव पंडित से प्रेरित लगता है और उन्होंने तो केशव पंडित सीरीज के सैंकड़ों फिक्शन लिख डाले थे ! शायद कनिका ने भी हसीं दिलरुबा से अपने सीरीज का आगाज कर दिया है।

कनिका ने स्टाइल जरूर बदला है लेकिन उनकी हसीन दिलरूबा रानी कश्यप (तापसी पन्नू ) उनकी ही पूर्ववर्ती मनमर्जियां की रूमी(तापसी पन्नू) , केदारनाथ की मुक्कू(सारा अली खान) और जजमेंटल है क्या की बॉबी(कंगना रनौत )जैसी बेबाक और एक्स्ट्रा बोल्ड हैं।
फिल्म की कहानी किसी ज्वालापुर शहर की है ; वैसे बता दें गंगा किनारे बसा ज्वालापुर हरिद्वार ही है। रानी दिल्ली की बिंदास और आजाद ख्यालों की अल्ट्रा मॉडर्न लड़की है। फिर भी वह छोटे शहर के रिशु (विक्रम मैसी) जैसे सेमी मॉडर्न टाइप लिमिटेड एडिशन वाले लड़के से शादी करती है, अपने पति के ही बॉडी साडी वाले कजिन नील (हर्षवर्धन राणे ) के साथ टॉक्सिक रिलेशनशिप कायम करती है और फिर रहस्यपूर्ण तरीके से साइक्लोजिकल थ्रिलर का रूप लेते हुए मर्डर मिस्ट्री बन जाती है। जिस प्रकार पल्प फिक्शन अनसुलझी मिस्ट्री का खुलासा अपने रीडर्स के लिए करता है, उसी अंदाज में व्यूअर्स पर्दे पर मिस्ट्री की परतें खुलता देख रोमांचित होता है।

बात करें फिल्म के क्लाइमेक्स की तो वह असल ब्रिटिश लेखक Roald Dahl की लिखी शार्ट स्टोरी Lamb to the Slaughter से प्रेरित है जिसमें एक महिला अपने पति की मौत के बाद अपनी बेगुनाही साबित करने में लगी होती है। पुलिस को मर्डर करने वाले हथियार की तलाश तो है,जो उन्हें नहीं मिलता।
फिल्म सिर्फ अपनी कास्टिंग की वजह से ही देखनी बनती है वरना तो इसे लुगदी के भी भाव नहीं मिलते और इसे "बी" ग्रेड फिल्म ही बता दिया जाता ! तापसी तो स्थापित एक्टर है ही लेकिन न मालूम मुझे क्यों लगा कि वह खुलकर रानी के किरदार को निभाने से चूक गयी ! कई जगह वह बेमन सी दिखती हैं। विक्रांत मैसी की बोलती आंखें उसकी सबसे बड़ी खासियत है और वह किसी भी मनोवैज्ञानिक पुट के लिए आज का सर्वोत्तम एक्टर है। हर्षवर्धन राणे खूब जमें हैं। इनके अलावा तापसी की ऑन-स्क्रीन सास के रोल में यामिनी दास ने कमाल का काम किया है। ससुर के रोल में दयाशंकर पांडे, पति के दोस्त के रोल में आशीष वर्मा और पुलिस अफसर के रोल में आदित्य श्रीवास्तव जंच रहे हैं।
म्यूजिक , डायरेक्शन आदि सभी ठीक हैं। सबसे अच्छे फिल्म के मस्त और जबरदस्त डायलॉग हैं। कुछ प्रसंग भी अच्छे कॉमिक क्रिएट करते हैं। एक जगह रानी की सास कहती है कि पकौड़े बना दो, तो रानी तपाक से बोलती है कि उसे बनाना नहीं आता है। इस पर गुस्साई सास बोलती है कि बायोडाटा में तो लिखा था कि तुम सर्वगुण संपन्न हो। इस पर रानी भला कहा चुप रहने वाली ! उसने तुरंत जवाब दिया कि बायोडाटा में तो आपने भी लिखा था कि आपका लड़का ५ फीट १० इंच का है, लेकिन इंचीटेप से माप ले लो, ५ फीट ८ इंच से अधिक नहीं होगा। पूछताछ के दौरान पुलिस इंस्पेक्टर और रानी के बीच के संवाद तो लाजवाब हैं चूँकि वे सस्पेंस को कंट्रीब्यूट करते हैं !
ओवरऑल फिल्म सिर्फ पूरी कास्ट के परफॉर्मेंस की वजह से ही इंटरेस्टिंग है। लेकिन कहानी अपूर्ण सी लगती है; न तो तीनों मुख्य किरदारों को जीवन का उद्देश्य दे पाती है , न उनका अतीत ठीक से सजा पाती है और न ही उनके वर्तमान की ग्रे लाइफ को ढंग से विस्तार दे पाती है । हालांकि क्लाइमेक्स में कुल जमा ५ मिनटों में बहुत कुछ समेटने की नाकाम कोशिश जरूर की गयी है !

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