छा जाती है चुप्पी अगर गुनाह अपने हों, बात दूसरे की हो तो शोर बहुत होता है !

सवाल सुप्रीम चुप्पी पर है. सवाल कथित वरिष्ठ अधिवक्ता के उच्च न्यायालय के भ्रष्ट जज यशवंत वर्मा के खिलाफ राज्य सभा में महाभियोग प्रस्ताव के विरोध करने के निर्णय पर भी है क्योंकि राज्य सभा अध्यक्ष उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज शेखर कुमार यादव के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के नोटिस पर अभी तक कार्रवाई जो नहीं की है. 

दरअसल दुर्भाग्य ही है देश का कि वकालत और नेता गिरी साथ साथ है. हितों के टकराव का उदाहरण इससे बेहतर क्या हो सकता है कि महानुभाव बड़े नेता भी है. ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि यदि एकबारगी मान लें जस्टिस यादव जस्टिस नहीं है तो उनको हेटस्पीच का आरोप सिद्ध होने पर अधिकतम सजा 3 साल की हो सकती है जबकि जस्टिस यशवंत वर्मा जस्टिस नहीं है तो उन पर अधिकतम सात साल की सजा की तलवार लटक रही है, चूंकि भ्रष्टाचार का आरोप है.    

इसी संदर्भ में याद आ गई कलकत्ता उच्च न्यायालय के जस्टिस सी एस कर्णन की, जिनको 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इसलिए अवमानना के लिए छह महीने की सजा सुना दी थी चूंकि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट और अन्य हाई कोर्ट के जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे. इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को सजा मिलने का कोई रिकॉर्ड नहीं है। हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ कार्रवाई आम तौर पर महाभियोग (impeachment) के जरिए होती है, लेकिन आज तक किसी जज को इस प्रक्रिया से हटाया नहीं गया है.  
तो सबसे पहले आप अपने दिमाग से निकाल दें कि हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट के जज गलती कर सकते हैं वरना आप अवमानना के दोषी करार दिए जाएंगे. लॉजिक ये है कि  जज के हर फैसले से एक पक्ष का असंतुष्ट होना स्वाभाविक है. शुरू से अंत तक. ऐसी परिस्थिति में एक जज के विरुद्ध असंतुष्ट पक्ष द्वारा आरोप लगा देने की संभावना बहुत बढ़ जाती है. इसीलिए जजों के लिए रक्षा कवच है, सुनिश्चित जो करना है कि न्यायाधीश बिना किसी डर या दबाव के न्याय कर सके.  क्या संविधान में इस रक्षा कवच का प्रावधान है ? दरअसल वजह संविधान ही है ! संविधान के अनुसार Immunity पूर्ण नहीं है और कुछ परिस्थितियों में न्यायाधीशों को जवाबदेह ठहराया जा सकता है. और उन्हीं परिस्थितियों के अनुकूल बना एस्केप रूट ले लिया जाता है.   

कुछ लाइनें याद आ गई,  "ये बराबरी का ढोंग अब बंद करो, सुरक्षा का माहौल तो पैदा करो. वरना ये कैसा लोकतंत्र है, ये कैसी आज़ादी है? जहाँ हर कोई अपनी सलामती का फरियादी है." क्योंकि भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यों की पीठ ने 1998 के अपने ही फैसले को सर्वसम्मति से ख़ारिज कर दिया था और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत रिश्वत खोरी के मामलों में विधायकों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए दरवाजे खोल दिए थे.     


सवाल है विधायकों के लिए एक स्टैंडर्ड और उच्च/उच्चतम जजों के लिए अलग मापदंड - क्यों ? सवाल है  न्यायिक प्रतिरक्षा न्यायिक कदाचार के लिए क्यों ? ठीक है आम आदमी और न्यायाधीशों के लिए सेम प्रोसेस नहीं हो सकते, यदि न्यायपालिका को स्वतंत्र रहना है ! आप किसी भी हवलदार को अगर यह अधिकार दें कि किसी भी जज के ख़िलाफ़ एफ़आईआर तुरंत दर्ज कर लो तो न्यायपालिका की पूरी स्वतंत्रता ख़त्म हो जाएगी. उच्चतम न्यायालय का इसलिए यह फैसला है कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अनुमति के बाद ही एफआईआर दर्ज हो सकती है. सो एक सेफ़गार्ड है वरना एक पुलिस स्टेट कहलायेगा ना !  

प्रश्न है जब कोई न्यायाधीश अपने सामान्य कर्तव्यों के दायरे से बाहर जाकर कोई काम करता है , तो न्यायिक प्रतिरक्षा क्यों लागू हो ? फिर दुनिया में  ऐसे कई उदाहरण हैं भी जब न्यायाधीशों को अपने गैर-न्यायिक कार्यों के लिए आपराधिक और नागरिक दोनों तरह से उत्तरदायी पाया गया ! परंतु भारत में उच्च और उच्चतम न्यायालय के जजों पर, प्रथम दृष्टया अपराध स्पष्ट हुआ तो भी, सीधी कानूनी कार्यवाही के लिए निर्देश क्यों नहीं देते शीर्ष न्यायमूर्ति ? 

सो विरोध न्यायमूर्तियों को मिलती प्रतिरक्षा पर नहीं है, परंतु विरोध तब ज़रूर है जब एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जिसके लिए जिम्मेदार यदि कोई आम आदमी है, विधायक है, या फिर कोई नामचीन व्यक्ति ही क्यों ना हो, उस पर तत्काल कार्यवाही होती है, जबकि वही न्यायमूर्ति है तो इन-हाउस इन्क्वायरी, महाभियोग के बड़े बड़े प्रोसेस से गुजरकर भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता. यहाँ तक कि कार्यवाही के दौरान भी वह माननीय न्यायमूर्ति है, मामले सुनता है, फैसले भी देगा ही. हद से ज्यादा हुआ तो दूसरे अधिकार क्षेत्र के उच्च न्यायालय में ट्रांसफर कर शपथ दिला दी मसलन महान जस्टिस यशवंत वर्मा इलाहाबाद हाईकोर्ट में बाक़ायदा नए अवसर तलाश रहे हैं ! 
न्यायमूर्ति शेखर यादव पर हेट स्पीच का आरोप दिसंबर 2024 में लगा जब वे यूनियन सिविल कोड के मसले पर विहिप के विधिक प्रकोष्ठ और हाईकोर्ट इकाई के प्रांतीय सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे. जो भी कहा उन्होंने, हेट स्पीच थी या नहीं, उनकी पेशी हुई शीर्ष न्यायमूर्ति की पांच सदस्यीय वरिष्ठ न्यायमूर्तियों के समक्ष ! जज यादव ने सफाई दी कि उनके भाषण को पूरे संदर्भ में नहीं समझा गया. भाषण के कुछ हिस्सों को उठाकर विवाद पैदा किया गया है. हालाँकि चीफ जस्टिस संजीव खन्ना के नेतृत्व वाली कॉलेजियम ने जस्टिस यादव का पक्ष गंभीरता से सुनते हुए उन्हें नसीहत दी कि जज का कोई बयान निजी नहीं होता है, संवैधानिक मानदंडों के हिसाब से ही अपनी बात रखनी चाहिए. कुल मिलाकर पीठ ने निष्कर्ष निकाल ही लिया था कि जस्टिस यादव दोषी होते हुए भी दोषी सिद्ध नहीं किये जा सकते, सो बात आई गई कर दो ! कहने को यादव जी ने कह दिया वे अपने शब्द वापस ले लेंगे, परंतु फिर पलट साफ़ कर दिया कि वे कायम है अपनी बातों पर. 
सभी जानते हैं कि देश में हेट स्पीच के दोयम पैमाने को ! हिंदू/सनातन के इर्द गिर्द दस हेट स्पीच का संज्ञान ही नहीं लिया जाता और एक विशेष समुदाय को लेकर यदि एक बात, हालांकि न कही जाए/जाती तो अच्छा है/था , कह दी जाए/जाती है  तो हेट स्पीच करार देने की होड़ मच जाती है.  क्यों ? समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. वही हुआ ! कथित वरिष्ठ अधिवक्ता, चूंकि पुराने राजनीतिज्ञ हैं, वर्तमान में राज्य सभा सांसद भी हैं, ने जरूरी सांसदों की संख्या जुटाई और जस्टिस यादव के खिलाफ महाभियोग का नोटिस राज्य सभा चेयरमैन उपराष्ट्रपति धनकड़ जी को दे दिया. हालाँकि आज पर्यंत तक  महाभियोग नोटिस के मुत्तालिक कुछ भी जानकारी नहीं है सिवाय इस बात के कि  13 फरवरी 2025 को राज्य सभा के सभापति ने बयान दिया कि संसद इस मामले को आगे बढ़ाएगी, और इसलिए इन-हाउस प्रक्रिया नहीं चलनी चाहिए. 

बस, इसी कहे पर कथित वरिष्ठ राजनीतिज्ञ अधिवक्ता विचलित हो गए हैं कि इन-हाउस प्रक्रिया और इम्पीचमेंट दो अलग अलग बातें है. उपराष्ट्रपति कैसे इन हाउस प्रक्रिया रुकवा सकते हैं ? जबकि कॉलेजियम ने तो दिसंबर 2024 में ही जस्टिस यादव को सुना था और यदि कुछ करना ही था तो 13 फ़रवरी 2025 आती ही नहीं !  

अब कथित वरिष्ठ अधिवक्ता जस्टिस यशवंत वर्मा को, जिनके घर में मार्च 2025 में हुई आगजनी में जले नोटों का जखीरा बरामद हुआ था, बचाने की जुगत में भिड़ गए हैं. वैसे उनकी इस जुगत में शीर्ष अदालत भी भागीदार प्रतीत होती है क्योंकि इतिश्री जो कर ली राष्ट्रपति और पीएम को एक पत्र के माध्यम से तीन सदस्यीय टीम की रिपोर्ट और जस्टिस वर्मा के  रिएक्शन( ना तो इस्तीफा देने को ना ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने को तैयार है) से अवगत कराकर. 
के.वीरस्वामी बनाम भारत संघ मामले में संविधान पीठ का निर्णय था कि संवैधानिक न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध आपराधिक मामला भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ पूर्व परामर्श के बाद ही दर्ज किया जा सकता है. तो उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने में हिचक क्यों जबकि यह निर्विवाद है कि भारी मात्रा में जलाई गई, आंशिक रूप से जलाई गई और गुप्त रूप से निकाली गई धनराशि कुछ और नहीं बल्कि रिश्वत/भ्रष्टाचार थी ? 
क्यों चीफ जस्टिस ने या फिर कहें कॉलेजियम ने गेंद कार्यपालिका के पाले में डाल दी ?  FIR का आदेश क्यों नहीं दिया ? प्रतिरक्षा के लिहाज से पुलिस की जांच का कोर्ट मॉनिटरिंग का आदेश दे सकते थे !  इससे पहले 2018 में ओरिएण्टल बैंक ऑफ़ कॉमर्स बैंक की किसानों के लिए जारी किये गए 98 करोड़ रुपये के लोन के गलत इस्तेमाल की शिकायत पर गाजियाबाद की सिम्भावली शुगर मिल में गड़बड़ी के मामले में जस्टिस वर्मा ( चूंकि वे शुगर कंपनी के नॉन एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर भी थे)के खिलाफ CBI ने FIR दर्ज की थी. इस मामले में CBI ने जांच शुरू की थी, हालांकि जांच धीमी होती चली गई.  फरवरी 2024 में एक अदालत ने CBI को बंद पड़ी जांच दोबारा शुरू करने का आदेश दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को पलट दिया और CBI ने जांच बंद कर दी.

कहने का मतलब जस्टिस वर्मा के लिए तो शीर्ष अदालत ने खूब सुरक्षा कवच का काम किया है. ऑन ए लाइटर नोट, एक कहावत याद आ रही , "सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का ?"    

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Prakash Jain

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