
24 घंटों में ही उद्धव को ये बात समझ आ गई. स्टालिन भी समझ गए हैं, परंतु नासमझ बने रहना उनकी राजनीतिक मजबूरी है. जहाँ तक राज ठाकरे का सवाल है, उसकी औक़ात ही क्या है ? स्टालिन ने मौका ताड़ा और दिखलाया कि उन्हें हिंदी लागू किये जाने के विरोध की राजनीति में ठाकरों का साथ मिल गया है, जबकि उनके मुखारविंद से हिंदी ही फूट पड़ी कि हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे ! कहीं न कहीं टीस तो है ही ना साउथ के लोगों में, मराठा बनाम साउथ इंडियंस वे कैसे भूल सकते हैं ? हालांकि विजय रैली मनाने के बाद रात्रि में डूबने का स्वप्न उद्धव ने भी देखा था, सो उन्हें अब तिनके की तलाश थी सहारे के लिए ! तदनुसार उन्होंने अपने सिपहसालार राउत को लगा दिया डैमेज कंट्रोल के लिए ! और राउत ने लीपा पोती कर दी कि 'हिंदी थोपे जाने के खिलाफ उनके रुख का मतलब है कि वे हिंदी नहीं बोलेंगे और न ही किसी को हिंदी बोलने देंगे. लेकिन महाराष्ट्र में हमारा रुख ऐसा नहीं है. हम हिंदी बोलते हैं... हमारा रुख यह है कि प्राथमिक विद्यालयों में हिंदी के लिए सख्ती बर्दाश्त नहीं की जाएगी। हमारी लड़ाई यहीं तक सीमित है."
अन्य विपक्षी पार्टियों के लिए तो स्थिति ऐसी बनी कि न उगलते बने न निगलते बने. कहने को साथ दिया लेकिन साथ दिखे नहीं !और अब यही कूटनीति उन्हें भारी पड़ेगी ही, क्योंकि महाराष्ट्र में वजूद है नहीं और हिंदी विरोध का स्वार्थ परक राजनीति वश खुलकर विरोध न करना बिहार की जनता को रास नहीं आ रहा है. अजीब नहीं लगता क्या हिंदी में बोलकर हिंदी का विरोध करते हैं ? तमिलनाडु की बात करें तो एक सवाल का जवाब दे दें - अंग्रेजी क्यों सीखते हैं ? जो भी जवाब है उसके अनुसार हिंदी सीखना गलत कैसे हो गया ? फैक्ट तो यही है कि आज हिंदी संपूर्ण विश्व में 65 करोड़ लोगों की पहली भाषा और 50 करोड़ लोगों की दूसरी और तीसरी भाषा है. विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है. हिंदी का उपयोग भारत के विभिन्न राज्यों के साथ-साथ नेपाल, मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, युगांडा, दक्षिण अफ़्रीका, कैरिबियन देशों, त्रिनिदाद और टोबैगो, कनाडा, इंग्लैंड, अमेरिका और मध्य एशिया में भी किया जाता है. है क्या मराठी या फॉर दैट मैटर किसी साउथ की भाषा का इस कदर फैलाव ?
साउथ की फिल्मों का पैन इंडिया जलवा तब परवान चढ़ा जब वे हिंदी में डब होने लगी और आजकल तो वहां के स्टारों की फिल्मों का एक ऑडियो हिंदी होता ही होता है. इसी प्रकार हॉलीवुड, कोरियन , स्पैनिश , फ्रेंच , जापानीज और यहाँ तक की चाइनीज़ फिल्मों का हिंदी ऑडियो संस्करण स्ट्रीम होने लगा है. कहने का मतलब पैन इंडिया के साथ साथ पैन वर्ल्ड कवरेज और तदनुसार सफलता के लिए भी हिंदी की महत्ता है, कौन इंकार कर सकता है ?
ख़ास महाराष्ट्र की बात करें तो एक ऐसा अहिंदी प्रदेश है जहाँ बोलने समझने वाले ही नहीं, हिंदी लिखने वाले भी बड़ी संख्या में हैं. जिस हिंदी सिनेमा की हिंदी भाषा के प्रसार में बड़ी भूमिका मानी जाती है, उसका केंद्र महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई ही है. फिल्म निर्माण से लेकर अभिनय तक हिंदी सिनेमा में मराठी मूल के लोगों ने बड़ा नाम भी कमाया है. दादा साहब फाल्के तो हिंदी सिनेमा के पितामह माने जाते हैं, सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित हिंदी फिल्म सिनेमा अवार्ड दादा साहेब फाल्के अवार्ड ही है. व्ही शांताराम के बिना हिंदी सिनेमा की कहानी कही ही नहीं जा सकती. मुंबई देश की वाणिज्यिक राजधानी भी है, बड़ी संख्या में गैर मराठी भाषियों ने मुंबई समेत महाराष्ट्र के सर्वागीण विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.
उसी महाराष्ट्र में अब देश की मई शिक्षा नीति २०२० के अनुरूप त्रिभाषा फार्मूले (दो भारतीय और तीसरी भाषा विदेशी )के अंतर्गत स्कूलों में पहली कक्षा से लेकर ५ वीं तक मराठी ,हिंदी और अंग्रेजी पढ़ाये जाने के फैसले को हिंदी थोपना बताकर उद्धव शिवसेना और राज ठाकरे मनसे द्वारा बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है. अब राजनीति ही तो है कि एक सही फैसले को लागू करने की बजाए मौजूदा सरकार दबाव में आ गई और आदेश में संशोधन कर दिया कि विद्यार्थी मराठी और अंग्रेजी के साथ तीसरी भाषा के रूप में हिंदी के बजाय अन्य भारतीय भाषा भी चुन सकते हैं.
पर हिंदी विरोध थमा नहीं. नतीजन ३० जून को विधानसभा के मॉनसून सत्र की शुरुआत के ठीक पहले महा युति सरकार ने हिंदी संबंधी अपने दोनों आदेश वापस ले लिए, जिसे हिंदी पढ़ाने का विरोध कर रहे राजनेता अपनी "जीत" बता रहे हैं. चूंकि उन्हें लगता है बीएमसी और आगामी नगर निगम चुनावों में राजनीतिक फायदा मिलेगा. दरअसल मराठी अस्मिता के नाम पर गैर मराठियों का विरोध करने से ही शिवसेना की पहचान बनी थी और आज उसी को फिर से अपना शगल बना कर दोनों ठाकरे को लगता है बचीखुची राजनीतिक जमीन बचा लेंगे. परंतु यदि ऐसा हुआ तो किस कीमत पर होगा ? निःसंदेह राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सामाजिक सौहार्द ही ताक पर रखे जाएंगे.
भाषाएँ संवाद का माध्यम है, फॉर दैट मैटर यदि अंग्रेजी पढ़ते सीखते हैं तो हिंदी सीखने पढ़ाने से एतराज क्यों ? ऑन ए लाइटर नोट, कोई पूछे उद्धव ठाकरे से क्या अपना मुखपत्र "सामना" हिंदी में हिंदी को चिढ़ाने के लिए निकालते हैं ? और स्वयं भी क्यों हिंदी सीखी, क्यों बोलते भी हैं ? भाषा को विवाद का हथियार बनाने के परिणाम कभी सकारात्मक नहीं हो सकते. मराठी अस्मिता क्या बच गई इससे कि विजय दिवस पर गैर मराठियों के साथ मारपीट पर चिंता जताने के बजाए ठाकरे बंधु मंच से दहाड़ रहे थे, " अगर मराठी के लिए लड़ना गुंडागर्दी है तो हम गुंडे हैं !"
सवाल है क्या देश में हिंदी बोलने वाले लोग इतने निरीह हैं कि गैर मराठा या गैर तमिल विरोध में वे ही हिंसा के शिकार होते हैं ? महाराष्ट्र में मुस्लिम भी तो गैर मराठा हैं, तमिल भी गैर मराठा है ! पहले कभी बाल ठाकरे के समय "उठाओ लुंगी बजाओ पुंगी" बुलंद कर दक्षिण भारतीयों को "साले यान्ड गुंडु" पुकार कर अपमानित करने वाले ठाकरे आज नहीं करेंगे, पॉलिटिक्स जो है. मुंबई में रहने वाले मुस्लिमों को मराठी न बोलने के लिए अभयदान दे रखा हैं, पॉलिटिक्स जो है. मुंबई में कोई हिंदी भाषी, एक सिक्योरिटी गार्ड, या किसी सुपर मार्किट में काम करने वाला व्यक्ति, वो चूँकि हिंदी बोल रहा है, तो उसे पीटा जा रहा है ; तो फिर किसी नेता का सर फिरा और उसने उस पीटने वाले मराठी को चैलेंज कर दिया कि आओ हमारी गली में तुम्हें पीट पीट कर अधमरा कर देंगे ; गलत कैसे हो गया ? आपने तो फिजिकल असाल्ट कर दिया, उसने तो सिर्फ धमकाया है !
कुल मिलाकर वर्ली सभागार में आयोजित विजय रैली में उद्धव और राज के भाषणों में राजनीति साफ़ दिख रही थी. लगभग दो दशक बाद उद्धव और राज ठाकरे ने मंच साझा किया .त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत स्कूलों में पाली से पांचवीं कक्षा तक मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी पढ़ाये जाने का फैसला वापस लेकर मौजूदा फडणवीस सरकार द्वारा पुनर्विचार के लिए नरेंद्र जाधव कमिटी बना दिए जाने को अपनी विजय बताते हुए उद्धव और राज ने जैसे भाषण दिए, उनसे साफ़ है कि हिंदी विरोध के जरिये मराठी अस्मिता की राजनीति चमकाने की मुहिम जारी रहेगी.

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