पत्नी के होते दिल लगाना महंगा पड़ेगा अब, क़ानून का व्याकरण जो चलेगा !

निःसंदेह "प्रेम" एक भावना है, जबकि "कानून" एक नियमों का समूह है.  दोनों के बीच क्या कोई  "व्याकरण" हो सकता है या खोजा जा सकता है ? हाँ , परंतु  इस बात पर निर्भर करता है कि हम इन्हें कैसे जोड़ते हैं - प्रेम विवाह में कानून प्रेम को कानूनी दर्जा देता है साथ ही कानून प्रेम के कार्यों को परिभाषित भी करता है मसलन विवाह, सहमति और गोपनीयता.

महान रूसी दार्शनिक टॉलस्टॉय का मानना था एक सुसंगत,शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण परिवार ही सुखी परिवार  हैं क्योंकि उन्हें कई प्रमुख मानदंडों पर खरा उतरना होता है ; जबकि दुखी परिवारों के लिए कोई एक कारण नहीं होता, बेवफ़ाई, ईर्ष्या, या आर्थिक अस्थिरता जैसी कोई भी समस्या किसी भी दुखी परिवार को अपने तरीके से दुखी कर सकती है. टॉलस्टॉय की इस अवधारणा को स्वीकृति मिली है दिल्ली उच्च न्यायालय के हालिया एक ऐतिहासिक निर्णय में ! मामला था शैली महाजन बनाम एम.एस. भानुश्री बहल एवं अन्य का, जिसमें एक पत्नी को यह अनुमति दी गई है कि वह अपने पति की कथित प्रेमिका के विरुद्ध “Alienation of Affection (AoA)” यानी विवाह में दुर्भावनापूर्ण हस्तक्षेप के लिए नागरिक क्षतिपूर्ति (civil damages) की मांग कर सकती है.  कहने का मतलब एक पत्नी अपने पति के प्रेमी पर "उसका स्नेह चुराने" का मुकदमा कर सकती है. इस प्रकार न्यायालय ने स्नेह के विमुखीकरण के भूले हुए अपकृत्य को पुनर्जीवित किया, जिसका अर्थ है कि जब कोई जानबूझकर विवाह तोड़ता है या दो प्रेम करने वाले लोगों के बीच आता है, तो इससे होने वाली चोट को ऐसी चीज़ माना जा सकता है जिसे कानून को गंभीरता से लेना चाहिए. 

परंतु निर्णय विवादास्पद है.  “Alienation of Affection” की अवधारणा अंग्रेज़ी-अमेरिकी कॉमन लॉ से आई है जिसके तहत, कोई पति या पत्नी उस व्यक्ति पर मुकदमा कर सकता है जिसने जानबूझकर उसके वैवाहिक संबंध में हस्तक्षेप किया हो. अमेरिका और ब्रिटेन में यह कानून अब पुराना और अप्रासंगिक है, ख़त्म हो चुका है. हमारे यहाँ कानून खामोश है, जहाँ तक लिखत की बात है ! परंतु दिल्ली उच्च न्यायालय ने कह दिया कि यदि साबित हो जाए कि किसी तीसरे व्यक्ति ने जानबूझकर वैवाहिक संबंध तोड़े, तो यह एक नागरिक अपराध (civil wrong) माना जा सकता है.  

सवाल कई हैं, टेस्ट कई हैं - क्या किसी तीसरे व्यक्ति (प्रेमी/प्रेमिका) को विवाह तोड़ने के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है? क्या यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के Joseph Shine (2018) फैसले के विरुद्ध है, जिसने व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर किया था? क्या यह मामला फैमिली कोर्ट में सुना जाना चाहिए या सिविल कोर्ट में?  “जानबूझकर हस्तक्षेप” का कानूनी अर्थ क्या होगा? क्या इससे निजता (privacy) का उल्लंघन या दुरुपयोग हो सकता है?

तो देखें AoA की अवधारणा के कानूनी पहलू को ! क्या एक “Heart-Balm” tort -जिसमें वैवाहिक स्नेह या संगति खोने के लिए क्षतिपूर्ति मांगी जा सकती है, मान्य हो सकता है ? इसे सिद्ध करने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं:
पति-पत्नी के बीच वास्तविक स्नेह था, वह स्नेह समाप्त हुआ, और किसी तीसरे व्यक्ति के दुर्भावनापूर्ण कार्य से वह स्नेह समाप्त हुआ ! एक herculean टास्क ही हुआ ना ! क्या पत्नी रूपी नारी भारी पड़ पाएगी प्रेमिका रूपी नारी पर ? तो जवाब है क्यों नहीं जब क़ानून का साथ है ! 
Joseph Shine बनाम भारत संघ (2018) के लैंडमार्क जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर किया था, लेकिन इसे नागरिक अपराध (civil wrong) और तलाक का आधार माना था. इसी तारतम्य में Pinakin Mahipatray Rawal (2013) के मामले का जिक्र बनता है जिसमें हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा स्नेह की दूरी जानबूझकर कराई गई हो तो यह एक ‘intentional tort’ है, ये जानबूझकर कराई गई को सिद्ध करना ही टेढ़ी खीर बनी थी इस मामले में भी ! Indra Sarma केस में यह भी कहा गया कि बच्चों को भी ऐसा दावा करने का अधिकार हो सकता है. किंतु, शैली महाजन से पहले किसी भारतीय अदालत ने क्षतिपूर्ति नहीं दी थी. 
बात करें अंतरराष्ट्रीय फलक की तो केवल कुछ अमेरिकी राज्यों (जैसे हवाई, मिसिसिपी, नॉर्थ कैरोलिना, साउथ डकोटा, यूटा आदि) में यह कानून अब भी लागू है. अधिकांश राज्यों ने इसे निजता और आधुनिक मूल्यों के विरोधी मानकर समाप्त कर दिया है. परंतु मुकदमे में सफलता के लिए सख्त प्रमाण आवश्यक हैं. 
बात करें दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय की तो स्पष्ट किया गया कि यद्यपि व्यभिचार अपराध नहीं रहा, परंतु इससे नागरिक जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती. तदनुसार माननीय अदालत ने कहा कि यह मामला सिविल कोर्ट में सुना जाएगा, क्योंकि यह पति-पत्नी के बीच नहीं बल्कि तीसरे व्यक्ति(पति की प्रेमिका) के विरुद्ध है.  

अदालत ने एक त्रिस्तरीय परीक्षण तय करते हुए निर्धारित किया - 

(i) तीसरे व्यक्ति का जानबूझकर और गलत आचरण,

(ii) उस आचरण और विवाह टूटने के बीच सीधा संबंध,

(iii) पीड़ित जीवनसाथी द्वारा भुगता गया मापनीय नुकसान।

अदालत ने साथ ही स्पष्ट किया कि यह निर्णय Joseph Shine के विपरीत नहीं है, क्योंकि वहाँ फौजदारी (criminal) दायरे की बात थी, न कि नागरिक (civil) !

कितनी विकट स्थिति निर्मित नहीं हो गई है क्या ? संविधान निजता की रक्षा सुनिश्चित करता है और क़ानून विवाह की पवित्रता पर निजता कुर्बान कर दे रहा है, निर्णय पितृसत्तात्मक सोच को पुनर्जीवित करता प्रतीत होता है. परंतु पीड़ित जीवनसाथी का क्या ? उसे न्याय से वंचित कर दिया जाए क्या ? तो महती आवश्यकता है व्यक्तिगत स्वतंत्रता और वैवाहिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाने की ! 

सवाल है टॉर्ट क़ानून का दायरा पारिवारिक संबंधों तक बढ़ाते हुए विवाह से जुड़े मामलों में सिविल डैमेज के रास्ते खोल देने से क्या व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप नहीं बढ़ेगा ? क्या यह एक टूल नहीं होगा व्यक्तिगत बदले का?
यह नया कानूनी उपाय उन लोगों के लिए राहत दे सकता है जिनके विवाह में बाहरी हस्तक्षेप हुआ है, लेकिन इसका उपयोग सावधानी और संतुलन से होना चाहिए ताकि निजता और स्वतंत्रता प्रभावित न हो ! चूंकि दुरुपयोग का स्कोप है, होंगे ही ! फिर भी समझना होगा कि विवाह व्यक्तिगत हो सकता है, लेकिन यह सामाजिक विश्वास का आधार भी बनता है. इसे जानबूझकर होने वाले नुकसान से बचाना नैतिक निर्णय देने के बारे में नहीं, बल्कि उस विश्वास को बनाए रखने के बारे में है.  इस दृष्टिकोण से, कानून एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है, न कि एक नैतिक प्राधिकार के रूप में। इस उपाय को जवाबदेही के दायरे में रखकर, न्यायालय व्यक्तिगत पसंद का सम्मान करता है और साथ ही हमें याद दिलाता है कि सच्ची स्वतंत्रता तभी सार्थक होती है जब उसका उपयोग दूसरों के प्रति सावधानी और विचार के साथ किया जाए. 
आधुनिक समय में प्रमाण और निजता: इस उपाय को लागू करने के लिए चतुराई की आवश्यकता होगी . ऐसे समय में जब प्रेम का इजहार ऑनलाइन किया जाता है, संदेश, ईमेल और तस्वीरें साक्ष्य में शामिल हो सकती हैं. ये अंश संदर्भ को गलत तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं या इरादे का खुलासा कर सकते हैं. न्यायालयों को काल्पनिक आरोपों और वास्तविक प्रमाण के बीच अंतर करने के लिए प्रासंगिकता और प्रामाणिकता के सटीक मानदंड स्थापित करने होंगे. हर तस्वीर किसी योजना का प्रमाण नहीं होती, और हर बातचीत स्वीकारोक्ति नहीं होती.  सत्य की खोज में गरिमा का त्याग नहीं किया जाना चाहिए. जब ​​कोई कानून निजी मामलों को छूता है, तो उसे संयम से और न्याय व करुणा का ध्यान रखते हुए किया जाना चाहिए. यह नवाचार न्याय को बढ़ावा देता है या दुरुपयोग को बढ़ावा देता है, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि साक्ष्य और निजता में कितना संतुलन है. कानून स्वतंत्रता और विश्वास की रक्षा तभी कर सकता है जब साक्ष्यों को सावधानीपूर्वक संभाला जाए.  

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Prakash Jain

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