कहावत ही तो है जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं ; कहा तो कहा जया बच्चन ने जो कहा है ! 


तो खूब बवाल भी कट रहा है आखिर उन्होंने क्यों कहा ? जवाब एक अन्य कहावत में ही है कि उन्हें थाली का बैंगन होकर रहना सूट करता है।वे अक्सर निजी और निहित स्वार्थ के तहत ही मुंह खोलती है वरना मौन मोहन ही रहती हैं चूँकि हजारों जवाबों से अच्छी हैं मेरी खामोशी ! तो क्यों ना कहें चूँकि कहावत ही है चोर की दाढ़ी में तिनका ! बताते चलें थाली का बैंगन होना भी कहावत ही है जिसका मतलब होता है जिसका कोई सिद्धांत ना हो, जो लाभहानि देखकर पाला बदलता है !  

याद नहीं आता कभी जया जी ने कोई तटस्थ बात की हो ! आजम खान के जयाप्रदा के लिए दिए गए निकृष्ट बयान और मुलायम के महिलाओं के लिए की गयी पितृसत्तात्मक और नारी विरोधी टिप्पणी पर वे चुप रह गयी थीं ! खैर ! मौन रह जाना भी उनकी फ्रीडम है लेकिन जया की तमाम चुप्पियों पर उनका यह बयान भारी पड़ गया है, इंडेफेंसिबल यानी असमर्थनीय साबित हो रहा है। वे अपनी बात बखूबी इस कहावत के बिना भी रख सकती थी ! अव्वल तो रविकिशन ने ऐसा कुछ भी बॉलीवुड के लिए नहीं कहा जिसपर ऑब्जेक्शन लिया जाय और फिर ड्रग्स के ही मुद्दे पर पार्लियामेंट में पिछले सेशन में भी उन्होंने अपनी बात रखी थी और तब सुशांत थे !  हाँ , कह सकते हैं कंगना मुंह फट हैं लेकिन वो कहते हैं ना बिना आग के धुंआ नहीं होता ! 

वस्तुतः जब जया जी ने इस कहावत का यूज़ किया , समझा यही गया कि लोगों को थाली दाता की गलत सही सभी बातों का समर्थन करना चाहिए, अन्यथा वह थाली में छेद करने के समान है! थाली दाता का व्यापक मायने हैं और सभी समझ रहे हैं इस कैच - २२ की विकट स्थिति को - रोजी रोटी चाहिए तो चुप रहो ! यही तो थाली दाता की हेकड़ी हैं जिसके सामने तुम्हारी प्रतिभा , स्किल , मेहनत सब बकवास है , बेमानी है !

इसी बहाने थोड़ा कहावतों के इतिहास को खंगाल लेते हैं ! कैसे कहावतों का जन्म हुआ ? खूब सर्च किया लेकिन गूगल ने भी ठेंगा दिखा दिया ! लेकिन इस खोज के सफर में सोशल मीडिया पर शेयर किया गया संजय कुंदन का कंटेंट काम आ गया !  

सोचिये कितना बड़ा कॉमेडियन रहा होगा वह जिसने ऊंट के साथ मजाक किया होगा उसके मुंह में जीरा डालकर ! क्या मस्तमौला फक्कड़ रहा होगा जिसने छछूंदर के सर पर चमेली के तेल मले जाने की मजेदार बात सोची होगी ! 

किसने सबसे पहले कहा होगा अधजल गगरी छलकत जाय ? कौन था जो आये तो हरिभजन को ओटन लगे कपास कहकर चला गया ? वे हमारे पूर्वज थे जिन्हें कवि नहीं बनना था ! उन्हें प्रसिद्ध नहीं होना था इसीलिए कहावतों में उन्होंने अपना नाम नहीं जोड़ा ! निश्चित ही वे जिंदगी के हार्श क्रिटिक रहे होंगे ! 

कोई तेजतर्रार भड़भूजा ही रहा होगा जिसने पहली बार महसूस किया होगा अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता ! कोई उत्साही मल्लाह (sailor ) ही रहा होगा जिसने फाइंडिंग दी या कहें निष्कर्ष निकाला जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ !  जिस किसी ने भी कोई कहावत ईजाद की यकीनन उसकी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। सोचिये कितनी हिम्मत जुटाई उसने जब एक ढोंगी की और ऊँगली उठाकर कहा होगा मुंह में राम बगल में छुरी ! 

दरअसल जिंदगी के कटु आलोचक अब रहे ही नहीं तो मौलिकता कहाँ से आये ? नतीजन कोई कहावत उठा लो और चिपका दो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए आखिर कॉपीराइट तो किसी ने करा रखा नहीं था ! कुल मिलाकर यह समझदार लोगों का दौर है , बयानवीरों का दौर हैं, कॉपी पेस्ट का दौर है , स्पॉसरशिप का दौर है और इस दौर के बारे में  सटीक बैठती एक मौलिक कहावत का बेसब्री से इंतजार है !     


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Prakash Jain

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