प्राइम वेब सीरीज रिव्यू : सिर्फ नाम के लिए है "बेस्टसेलर" वरना तो औसत दर्जे से भी कम है ! 

वेब की पटकथा अंग्रेजी के चर्चित उपन्यासकार रवींद्र सुब्रमणियन के नॉवेल 'द बेस्टसेलर शी रोट' पर आधारित है जिसे लिखा है एल्थिया कौशल और अन्विता दत्त ने और डायरेक्ट दिया है मुकुल अभ्यंकर ने !  एक साइकोलॉजिकल सस्पेन्स थ्रिलर है ऐसा ही समझ कर सिरीज़ देखी  लेकिन स्क्रीनप्ले में इतने झोलझाल हैं कि तीनों ही तत्वों का आभास तो होता है परंतु एपिसोड दर एपिसोड सारे औंधे मुँह यूँ गिरते हैं कि कहावत याद आती है “खोदा पहाड़ निकली चुहिया !"  

कहावत से याद आई एक कहावत, जो काशी में खूब चलती है- "रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी। इनसे बचे तो सेवे काशी"- को राइटर्स यदि महान सूफी संत कबीर का दोहा बता दें तो उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है कि वे कोई मास्टरपीस रचना क्रिएट करेंगे ? यदि संत कबीर होते तो क्या राइटर एक चलताऊ कहावत को उनके नाम पर चिपकाने की ज़ुर्रत करते ? पता नहीं क्यों मेकर्स ने असल जगहों और चीजों को नकली नाम दे दिए ?  राजसी काशी ही रहती, परिणीता घाट मणिकर्णिका घाट ही रहता, 'ट्वीकर' ट्विटर और 'यूष्यूब' यूट्यूब ही रहे तो किसे एतराज हो सकता  था ? क्या एंटरटेनमेंट का मिथ्या काल आ गया है कि कल्पना शक्ति  पर भी ग्रहण लग गया है ? 

लगता है लेखकों ने उपन्यास पर पटकथा बिना कहानी समझे ही लिख दी।  फिर लिखी तो आठ कड़ियों की वेब सीरीज तक विस्तार दे दिया जबकि नॉवेल में इतनी सामग्री(स्टफ) थी ही नहीं ! नतीजन व्यक्तिगत किरदारों की पृष्ठभूमि को अनावश्यक विस्तार दे दिया गया जिस वजह से सीरीज एज ए व्होल पकड़ रख नहीं पाती ! ऊपर से लैक ऑफ़ साइटेडनेस (दर्शिता के अभाव) ने अनेकों स्लिप ऑफ़ पेन क्रिएट कर दिए मसलन एसीपी प्रामाणिक(मिथुन दा)  को मयंका (गौहर खान) द्वारा बार बार इंस्पेक्टर कहना जबकि वह पढ़ी लिखी एड पर्सनालिटी है ; मीतू माथुर (श्रुति हसन) और पार्थ (सत्यजीत दुबे) छदम नामों से शहर में हैं, कहीं पेइंग गेस्ट भी है मीतू डेबिट कार्ड अपने असली नाम का यूज़ करती है, पार्थ नौकरी भी कर रहा है ! झोल और भी कई हैं , कई सवाल अनुत्तरित ही हैं मसलन गैजेट्स की क्लोनिंग, हैकिंग, अनचाहे फ्लैशबैक, जब तब हमबिस्तर होने की हद तक बेवफाई ,डेड बॉडी आदि आदि ! 

दूसरे की रचना चुराकर अपने नाम से पब्लिश करवा कर ख्यातिलब्ध होने के क्या अंजाम हो सकते हैं, इसी मैसेज को देने के लिए जहनी एंगल से सस्पेंस थ्रिलर क्रिएट करने की असफल कोशिश ही है वेब सीरीज ! सस्पेंस चौथे एपिसोड आते आते खत्म हो जाता है, सायक्लॉजिकल टच सिर्फ पहले एपिसोड तक ही आभासी है और जब दोनों ही तत्व यानी जहनी और रहस्य दम तोड़ देते हैं तो घटते क्राइम, जिनका पूर्वानुमान लगाना मुश्किल नहीं हैं,  थ्रिल कैसे दे सकते हैं ?  

दरअसल ओटीटी प्लेटफॉर्मों में वेब सीरीज लाने की होड़ सी मची है सो एक के बाद एक तेजी से आ रहे इन कंटेंटों में टिकाऊपन है ही नहीं, आद्योपांत एक सी ही लगती है, कहीं कोई संतुलन रहता ही नहीं ; मानों स्ट्रीम हो रही है  तो चलने दो आखिर सालाना सब्सक्रिप्शन जो ले रखा है ! बेस्टसेलर वही केटेगरी को बिलोंग करती है। 

अभिनय की बात करें तो सिर्फ एक ही है और वो है मिथुन दादा, जिनका किरदार भी उनकी ही तरह रिटायरमेंट की कगार पर हैं ! लेकिन सिर्फ मिथुन दा के लिए तक़रीबन साढ़े चार घंटों की आठ एपिसोड वाली वेब सीरीज को झेलना संभव नहीं है। उनका अंदाज निराला है जिस वजह से जब भी वे स्क्रीन शेयर करते हैं , घटनाक्रम में रोचकता आ जाती है। कुछेक संवाद भी अच्छे पल्ले पड़े हैं उनके जिन्हें उन्होंने अपने अंदाज से बखूबी डिलीवर किया है जैसे एक जगह वे कहते हैं कोई रिलेशनशिप में होकर कैसे लाइन क्रॉस कर लेता है ; पीकर लोग गिरते हैं लेकिन इतना गिरने के लिए कितनी पीनी पड़ती है !                 

लेकिन एक्टरों को दोष क्यों दे यदि उनके संबंधित किरदार में ही झोलझाल हो ! वरना तो ग्लैमर की भरपाई गौहर खान(मयंका) से ज्यादा कौन कर सकती है ? 

अंत में एक बात और, "रांड सांड , सीढ़ी , संन्यासी" के अपभ्रंश मायनों को अडॉप्ट कर ना तो इस टाइटल से किताब ही बेस्टसेलर बनती है और ना ही कोई फिल्म या वेब सीरीज ब्लॉकबस्टर बन सकती है। "रांड" का तात्पर्य 'विधवा' से है ना की 'वेश्या' से ; "सांड" शंकर- शंभू का नंदी है जिनके असंख्य अवतारों के हवाले काशी है, इनसे बचने की नहीं,  इन्हें सेवने की जरुरत है ; चौरासी घाटों की असंख्य सीढियाँ ही तो साधन है प्रवाहमान गंगा में डुबकी लगाने के लिए ; और सन्यासियों ने काशी को माहौल दिया है ! कुल मिलाकर काशी को पाना है तो इन सबों को सेवना है , छोड़ना नहीं !                  

                        


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Prakash Jain

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