साल 1939 में त्रिपुरी अधिवेशन के बाद कांग्रेस का अगला अध्यक्ष चुना जाना था।तब महात्मा गांधी आलाकमान थे ! सुभाष चंद्र बोस से गांधी संतुष्ट नहीं थे चूँकि वे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ना चाहते थे जबकि दुनिया दूसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ी थी।बोस उग्र थे और अनेकों कार्यकर्ताओं का उन्हें सपोर्ट भी था ! पार्टी का एक खेमा अंग्रेजों से समझौता करना चाहता था ! चुनाव से पहले जवाहरलाल नेहरू ने सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ लड़ने से इंकार कर दिया। वहीं, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने भी अपनी दावेदारी वापस ले ली थी। दोनों को पता थी हक़ीक़त कि हवा का रूख किस ओर है ! सो सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध गांधीजी ने पट्टाभी सितारमैय्या को अपना उम्मीदवार बनाकर खड़ा कर दिया था। आज सोनिया गांधी आलाकमान है ! उदयपुर अधिवेशन के बाद अध्यक्ष का चुनाव हो रहा है ! थरूर भी बोस के मानिंद ही उस हद तक हैं कि आलाकमान संतुष्ट नहीं हैं ! वजह भी है ! 'जी 23' वाले कांग्रेसी जो है ! खुलकर गांधी परिवार की ख़िलाफ़त नहीं करते तो खुलकर चापलूसी भी नहीं करते !
तब चुनाव में जहां सुभाष चंद्र बोस को 1580 वोट मिले। वहीं, सीतारमैय्या को 1377 वोट मिले। महात्मा गांधी ने इस हार को अपनी हार बताया था क्योंकि सितारम्मैया उनके ऑफिसियल उम्मीदवार थे ! तब गांधीजी ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से यहाँ तक कह दिया था कि यदि वे बोस के काम से खुश नहीं हैं तो कांग्रेस छोड़ सकते हैं। नतीजन कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 सदस्यों में से 12 ने इस्तीफ़ा दे दिया था ! आख़िर में बोस कांग्रेस से ही अलग हो गए और अपनी फ़ॉर्वर्ड ब्लॉक पार्टी बनाई थी ! आगे चलकर इंडियन नेशनल आर्मी के जरिये नेताजी ने आज़ादी के युद्ध में हिस्सा लिया। हाँ , दिखावे के लिए गांधी जी ने ज़रूर कहा था कि वे सुभाष की जीत से खुश हैं, वे चुनाव जीतकर अध्यक्ष बने हैं ! ‘सो मैं अपनी हार से खुश हूँ’ कहकर उन्होंने पार्टी को संदेश दे दिया और आखिरकार वही हुआ जो वह चाहते थे, आलाकमान जो थे !
कुल मिलाकर चुनाव के पहले का घटनाक्रम कमोबेश समान है ! आलाकमान की पसंद के रूप में खड़गे की वाइल्डकार्ड एंट्री के लिए गहलोत और दिग्विजय सिंह ने मैदान छोड़ दिया ! गहलोत का दर्द जगज़ाहिर हो गया है और दिग्विजय ने अपने ट्वीट में गहरी बात कह दी, 'चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बे परवाह, जाके कछु नहीं चाहिए, वे शाहन के शाह' ! इस दोहे का अर्थ होता है, जिन्हें कुछ नहीं चाहिए वो राजाओं के राजा हैं क्योंकि उन्हें ना तो किसी चीज की चाह है, ना ही चिंता और मन तो बिल्कुल बेपरवाह है ! उधर थरूर के साथ भी मुँह देखी बात ही की थी सोनिया जी ने जब उन्होंने कहा पार्टी के अध्यक्ष के लिए उनकी पसंद या नापसंद या उनकी दखलंदाजी की तमाम बातें बेमानी है , गलत हैं। आखिर गांधी की लिगेसी वही संभाल रही हैं !
चुनाव के बाद जो होगा वो 1939 से जुदा होगा ! तब बोस जीत गए थे चूँकि क़ाबिलियत थी और वोटर स्वतंत्र थे, किसी कोटरी के हिस्से नहीं थे ! जिन्हें बोस का काम और सोच पसंद थी, उनकी अपेक्षाकृत संख्या ज़्यादा निकल आयी और वे जीत गए ! इसका मतलब कदापि ये नहीं था कि वे सब महात्मा गांधी के विरोधी थे ! बात सिर्फ़ दो 'मित्रों' में से एक को तरजीह देने भर की थी ! वो बात दीगर है कि अंततः आलाकमान की ही चली ! आज भी कल्चर वही है और ज़्यादा मजबूत है ! तक़रीबन 9000 जो वोटर हैं वे सब के सब आलाकमान द्वारा ही मनोनीत हैं ! सो वोट खड़ग की धार ही बढ़ाएँगे ; हाँ , कुछेक अंतरात्मा की आवाज़ का दिखावा भी करेंगे थरूर को वोट देकर लेकिन वे उतने ही होंगे जितने जमानत ज़ब्त करवा देते हैं !
दरअसल सोनिया जी का थरूर को चुनाव लड़ने की इजाज़त देना उनकी सोची समझी कूटनीति है, स्वतः ही बलि चढ़ने को बकरा जो मिल गया ! वे ‘मनमोहन ‘ तलाश रही थीं जो ख़त्म हुई खड़गे जी पर ! निःसंदेह बेस्टेस्ट च्वाइस है, बुज़ुर्गवार हैं और दलित भी हैं ! एक और अच्छी बात हुई इस तलाश की प्रक्रिया से, गहलोत और दिग्विजय सरीखे रंगे सियारों की पहचान भी वो कर पाईं ! लेकिन पार्टी कालांतर में ज़रूर अफ़सोस करेगी थरूर को अध्यक्ष के रूप में ना पाकर ! और एक बात, यदि पीसीसी के ज़्यादा प्रतिनिधियों ने अंतरात्मा की आवाज़ सुन ली और दुर्भाग्य से थरूर को वोट दे भी दिया, वे नाकाफ़ी ही होंगे जिताने के लिए ! हाँ , लोगों में संदेश तो यही जाएगा कि एक बेहतर, समझदार और अपेक्षाकृत युवा शशि थरूर को गांधी परिवार ने कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनने दिया सिर्फ़ इसलिए कि वे आलाकमान कल्चर बदलना चाहते थे, पार्टी में संगठनात्मक बदलावों की बात करते थे !
"हम दुश्मन नहीं है। यह युद्ध नहीं है। यह हमारी पार्टी के भविष्य का चुनाव है। खड़गे जी पार्टी के तीन टॉप नेताओं में आते है। उनके जैसे नेता बदलाव नहीं ला सकते और मौजूदा व्यवस्था को ही जारी रखेंगे। पार्टी कार्यकर्ताओं की उम्मीद के मुताबिक़ बदलाव मैं लाऊंगा।" - ऐसा थरूर कहते हैं। पता नहीं कांग्रेसी नेता समझ पा रहे हैं थरूर की बात को या नहीं ! आम आदमी के पल्ले तो कुछ पड़ नहीं रहा !
Write a comment ...