क्या सुप्रीम कोर्ट दबाव में है ?

ज्यादा दिन नहीं हुए, देश के तक़रीबन 600 वकीलों ने चीफ जस्टिस को लिखकर आशंका जताई थी, "निहित स्वार्थ समूह" की मोडस ऑपरेंडी का भी खुलासा किया था. फौरी प्रत्युत्तर मिला और यदि कहें कि आरोपित  "निहित स्वार्थ समूह" ने वादी वकीलों की भारी भरकम फ़ौज को ही "निहित स्वार्थ समूह" बता दिया तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. 

दरअसल वादी प्रतिवादी एक ही क़ौम के हैं, तर्क वितर्क उनका धर्म है और जब आरोप ख़ुद पर लगे और नकारने के वाजिब आधार ना हों तो shoot the messenger के  लिए वादी को ही कटघरे में खड़ा कर देने की कला में दोनों ही निपुण हैं ! चूँकि मुख्य न्यायाधीश ने चुप्पी साध रखी है, तार्किक निष्कर्ष तो यही निकलता है आग निश्चित ही लगी है ! 

आरोप क्या हैं, उन पर जायें उसके पहले मन की बात कर लें ! अवमानना ना समझें तो आम आदमी के लिये शीर्ष अदालत क्या है ? उच्चतम न्यायालय विशिष्ट लोगों की, विशिष्ट लोगों के द्वारा और विशिष्ट लोगों के लिए है ! विशिष्ट कौन हैं -  अनुभवी न्यायमूर्ति हैं, अनुभवी वकील हैं , राजनेता हैं, बाहुबली हैं, जायंट कॉर्पोरेट्स हैं, वेटेरन क्रिमिनल्स हैं, वाइट कलर क्राइम्स और उनके ऑफेंडर्स हैं ! चूंकि सब कुछ हाई क्लास है, तो फ़ीस भी हाई क्लास है जिसे आम आदमी अफ़्फोर्ड ही नहीं कर सकता. नतीजन वह भौचक्का हो जाता है जब देखता है एक से जुर्म (मसलन भ्रष्टाचार) के लिए वह निचली अदालत (सेशन तक) से सजा पाकर भुगत रहा है जबकि कथित विशिष्ट राहत पा लेता है विशिष्ट न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) में हुई सुप्रीम नुक़्ताचीनी के बल पर !    

निःसंदेह शीर्ष जस्टिस नुक्ताचीनों से प्रभावित होते हैं, तदनुसार उच्च न्यायालय तक के फैसले भी पलट दिए जाते हैं. सो दबाव से इंकार तो नहीं किया जा सकता ! कुछ दिनों पहले ही दिग्गज अभिषेक मनु सिंघवी से चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने केजरीवाल के मामले की अर्जेंट हियरिंग के आधार ईमेल पर भेजने  के लिए कहा. सवाल है भारत की जेल में 20 लाख से ज्यादा विचाराधीन कैदी बंद है, क्या वह या उसका वकील  सीधे चीफ जस्टिस को ईमेल करके अर्जेंट बेसिस पर अपनी सुनवाई करवा सकता है ?    

कुल मिलाकर आज सामान्य भावना घर कर गई है कि शीर्ष अदालत दबाव में आ जाती है. जबकि वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है. दरअसल विक्टिम कार्ड है ये जो पक्षकार निजी स्वार्थवश चलते हैं और समर्थन में तर्क, वितर्क, परिस्थितियां और कार्यवाहियां भी जुटा लेते हैं. तब फिर चालू हो जाती है "हम किसी से कम नहीं" की रेस ! नतीजन बड़े पैमाने पर जनता पुनः किंकर्तव्यविमूढ हो जाती है और एक न्यायोचित फैसले पर भी संदेह करने लगती है. ताजा ताजा उदाहरण है पतंजलि के बाबा रामदेव का जिनकी माफ़ी शीर्ष अदालत को मंजूर नहीं है जबकि पूर्व में एक राजनेता की माफ़ी मंजूर कर ली थी. वकील के मार्फ़त टालमटोल रामदेव कर रहे हैं तो उस नेता ने भी खूब की थी. कहने का मतलब मापदंड बदल जाते हैं ; क्या इसलिए कि विशिष्ट न्यायमूर्ति बदल गए या  विशिष्ट अधिवक्ता बदल गए या आरोपी का प्रभाव उतना विशिष्ट नहीं है. या फिर जैसा एक जस्टिस ने कमेंट किया, " you're not so innocent" मानों वो राजनेता तो बड़ा ही इनोसेंट था ! 

कहाँ हम वितर्क करने लगे ? कइयों को कुतर्क लग रहे होंगे ? चले आते है इन वकीलों के हुजूम ने क्या क्या कहा है ? सीजेआई को लिखी चिट्ठी में वकीलों ने कहा है कि ये समूह न्यायिक फैसलों को प्रभावित करने के लिए दबाव की रणनीति अपना रहा है, और ऐसा खासकर सियासी हस्तियों और भ्रष्टाचार के आरोपों से जुड़े मामलों में हो रहा है. चिट्ठी में कहा गया है कि ये समूह ऐसे बयान देते हैं जो सही नहीं होते हैं और ये राजनीतिक लाभ के लिए ऐसा करते हैं. अपनी चिट्ठी में वकीलों ने ऐसे कई तरीकों पर प्रकाश डाला है, जिनमें न्यायपालिका के तथाकथित ‘स्वर्ण युग’ के बारे में झूठी कहानियों का प्रचार भी शामिल है. वकीलों के मुताबिक, इसका उद्देश्य वर्तमान कार्यवाही को बदनाम करना और अदालतों के प्रति जनता के विश्वास को कम करना है.  हरीश साल्वे समेत देश के सीनियर वकीलों ने लिखा है कि कानून का समर्थन करने वाले लोगों के रूप में, हमें लगता है कि अपनी अदालतों के लिए आवाज उठाने का समय आ गया है,   हमें साथ आने की जरूरत है, छिपे हुए हमलों के खिलाफ बोलने की जरूरत है और यह सुनिश्चित करते हुए कि हमारी अदालतें हमारे लोकतंत्र के स्तंभ के रूप में बनी रहें, इन सोचे-समझे हमलों से बचने की जरूरत है. ये ग्रुप अपने पॉलिटिकल एजेंडे के आधार पर अदालती फैसलों की सराहना या फिर आलोचना करता है. असल में ये ग्रुप 'माई वे या हाईवे' वाली थ्योरी में विश्वास करता है. साथ ही बेंच फिक्सिंग की थ्योरी भी इन्हीं की गढ़ी हुई है. वकीलों का आरोप है कि ये अजीब है कि नेता किसी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं और फिर अदालत में उनका बचाव करते हैं. ऐसे में अगर अदालत का फैसला उनके मनमाफिक नहीं आता तो वे कोर्ट के भीतर ही या फिर मीडिया के जरिए अदालत की आलोचना करना शुरू कर देते हैं. कुछ तत्व जजों को प्रभावित करने या फिर कुछ चुनिंदा मामलों में अपने पक्ष में फैसला देने के लिए जजों पर दबाव डालने की कोशिश कर रहे हैं. और ऐसा सोशल मीडिया पर झूठ फैलाकर किया जा रहा है. इनके ये प्रयास निजी या राजनीतिक कारणों से अदालतों को प्रभावित करने का प्रयास है, जिन्हें किसी भी परिस्थिति में सहन नहीं किया जा सकता.  
अब देखें आरोपित ग्रुप ने क्या कहा ? पुरजोर तरीके से कहा कि यह पत्र जिम्मेदार वकीलों और वकीलों के मंचों, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा और भारतीय संविधान की बुनियादी संरचना की रक्षा के लिए लगातार लड़ रहे हैं, के खिलाफ केवल निराधार बातें करना है.  ये 600 वकील अतीत में चुप रहे , जब केंद्र की वर्तमान सरकार न्यायपालिका की स्वतंत्रता सहित संविधान की बुनियादी संरचना के खिलाफ हमले कर रही थी. जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों ने संसद की सर्वोच्चता के नाम पर ‘न्यायिक समीक्षा’ और ‘बुनियादी ढांचे’ पर हमला किया और न्यायाधीशों के चयन में कार्यपालिका की भूमिका निर्धारित करने की मांग की. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के तबादले के मामले में मौजूदा सरकार द्वारा सीधा हस्तक्षेप किया गया.  नरेंद्र मोदी सरकार ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करने और उसमें हस्तक्षेप करने के लिए’ न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियों में लगी हुई है. इसके साथ ही कई मौकों पर न्यायाधीशों की नियुक्तियों और तबादलों पर कॉलेजियम के फैसलों का अनादर भी किया गया है. पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को सेवानिवृत्ति पर मोदी शासन द्वारा राज्यसभा के लिए नामित किया गया था. उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में जस्टिस अब्दुल नज़ीर की सेवानिवृत्ति के छह सप्ताह के भीतर उन्हें आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया. चुनावी बॉन्ड और प्रेस सूचना ब्यूरो की ‘अलोकतांत्रिक फैक्ट चेक यूनिट’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने वकीलों के इस ‘समूह’ को परेशान कर दिया है. ‘पत्र में लगाए गए निराधार आरोप, अफवाहें देश भर के वकीलों और कानूनी बिरादरी की आम राय नहीं हैं. ‘वकीलों का यह समूह’ भारत में अधिवक्ताओं और कानूनी बिरादरी का प्रतिनिधित्व नहीं करता है. 

दरअसल मोदी फोबिया हावी हो गया चूंकि 600 वकीलों के लेटर को कैप्शन में लेकर मोदी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए ट्वीट जो कर दिया कि ‘दूसरों को डराना-धमकाना कांग्रेस की पुरानी संस्कृति है.'  परंतु जनमानस क्या करे ? एक पल उसे 600 सही लगे, और दूसरे ही पल वो ग्रुप भी ठीक लगने लगा ! भ्रम निर्मित हो गया ! 

और लीजिए आ गया सुप्रीम और हाई कोर्ट के रिटायर्ड जजों का ग्रुप भ्रम का निवारण करने के लिए ! लेकिन क्या निवारण हो पायेगा या फिर भ्रम और गहरा जाएगा ? क्योंकि इन माननीय जजों की चिट्ठी भी कमोबेश रेप्लिकेशन ही है वकीलों की चिठ्ठी का ! फिर भी जब 21 माननीय जस्टिस भी चिंता जाहिर करें तो कहना ही पड़ेगा कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है ! 

किसी व्यक्ति या समूह का विशेष रूप से नाम लिए बिना इन न्यायमूर्तियों का कहना है,"हम विशेष रूप से गलत सूचना की रणनीति और न्यायपालिका के खिलाफ जनता की भावनाओं को भड़काने के बारे में चिंतित हैं, जो न केवल अनैतिक हैं, बल्कि हमारे लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों के लिए हानिकारक भी हैं. किसी के विचारों से मेल खाने वाले न्यायिक निर्णयों की चुनिंदा रूप से प्रशंसा करने की प्रथा है, जो ऐसा नहीं करते उनकी आलोचना करना, न्यायिक पुनर्विचार और कानून के शासन के सार को कमजोर करता है." पत्र पर हस्ताक्षरकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट से ऐसे दबावों के खिलाफ मजबूत होने और यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया है कि हमारी कानूनी प्रणाली की पवित्रता और स्वायत्तता संरक्षित है.

और अंत में ऑन ए लाइटर नोट इसी महीने सुप्रीम कोर्ट में सुने गए एक मामले का जिक्र इस उद्देश्य से करते चलें कि क्यों ना प्रतिष्ठित सीनियर अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और कतिपय अन्य कुछ महीनों के लिए राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के मामले लेने बंद कर दें ! हुआ यूँ कि शीर्ष अदालत ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली पार्टी को दिल्ली के राउज एवेन्यू पर जमीन को खाली करने का आदेश दिया था क्योंकि  यह भूमि दिल्ली हाईकोर्ट को अपने बुनियादी ढांचे के विस्तार के लिए आवंटित की गई थी. सुनवाई के दौरान सीजेआई ने सिंघवी से (वे आम आदमी पार्टी को रिप्रेजेंट कर रहे थे) हल्के-फुल्के अंदाज में कहा, "इस मामले में आपको पेश नहीं होना चाहिए. आप दिल्ली हाईकोर्ट के लिए जमीन का विरोध नहीं कर सकते. आपको हमारा समर्थन करना चाहिए."

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Prakash Jain

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