बात चुनावों के दौरान व्यक्तिगत छींटाकशी और अमर्यादित भाषा के इस्तेमाल की कर रहे हैं. हर हरकती हरकत करता है और उम्मीद करता है उसकी हरकत पर कोई हरकत ना हों ; परंतु बेजा हरकतों पर वोटों का जबरदस्त नुकसान होता है. फिर अभी तो दो महीने और कुछ दिन शेष हैं, धीरज रखें जिस व्यक्ति विशेष पर छींटाकशी की है या जिसके बारे में अमर्यादित बोल बोले हैं, वे ट्रांसलेट होंगे जाति समूह पर जिसे वह बिलोंग करता है ; सो उनके वोट तो भूल ही जाइये !
शीर्ष अदालत से लेकर विभिन्न उच्च न्यायालय अनेकों बार चुनावों के दौरान अनर्गल बोलबचनों, गरिमाहीन बयानों के इस्तेमाल को लेकर राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं तथा नेताओं को नसीहतें देते रहे हैं. सार्वजनिक जीवन में रहने वाले व्यक्तियों से दूसरों के प्रति आदर का भाव अपेक्षित है लेकिन चुनाव आते ही दलों के नेताओं में अपने प्रतिद्वंदियों को लेकर तिरस्कार पूर्ण भाषा के इस्तेमाल की जैसे होड़ सी लग जाती है. कोफ़्त तब होती है जब तथाकथित प्रबुद्ध नेता भी मर्यादा भूल जाते है. स्थिति तब और विकट हो जाती है जब वे स्वयं को सही ठहराते के लिए कुतर्क गढ़ लेते हैं या फिर आजकल सफ़ाई देने का नायाब टूल जो आ गया है कि विरोधियों ने वक्तव्य को तोड़ मरोड़ दिया है. तदनुसार उनके पिछलग्गू प्रोपेगेट करने में लग जाते हैं.
इन सबके बीच चुनाव आयोग की भूमिका भी समझ से परे हैं क्योंकि संबधित लोगों को चेतावनी जारी भर कर खाना पूर्ति ही होती आई है. कल तक तो परस्पर ऊलजलूल बयांबाजी हो ही रही थी, चुनाव आते ही अक्ल घास चरने चली गई या अक्ल पर पत्थर पड़ गए कि कतिपय नेता अपनी प्रतिस्पर्धी महिला नेत्रियों पर अमर्यादित टिप्पणी कर बैठे. दो प्रकरण हुए ही थे कि तीसरा भी हो गया और वह भी एंटीफ़ेमिनिज़्म को क्वालीफाई करता हुआ. पहले के दो मामलों में से एक में कांग्रेस की तेज तर्रार महिला नेत्री सुप्रिया श्रीनेत ने मंडी (हिमाचल प्रदेश) से भाजपा प्रत्याशी कंगना रनौत व दूसरे में भाजपा नेता दिलीप घोष ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को लेकर विवादित टिप्पणी की थी. यदि आयोग ने चेतावनी नुमा नसीहत से ऊपर उठकर सख्त कार्यवाही कर दी होती तो शायद तीसरा प्रकरण होता ही नहीं. श्रीनेत का ट्वीट तो इस हद तक अश्लील था कि उसके कैप्शन दोहराए भी नहीं जा सकते. एक बात और, जहां बीजेपी ने दिलीप घोष से स्पष्टीकरण माँगा वहीं कांग्रेस तो अपनी महिला नेत्री की निहायत ही अनुचित सफाई पर अड़ी रही और बचाव में खड़ी दिखी. हालाँकि दिलीप घोष ने शब्दों के चयन पर खेद प्रकट किया. परंतु क्या इन बेलगाम नेताओं के जवाबों को स्वीकार करते हुए महज चेतावनी भरी नसीहत देकर चुनाव आयोग ने सही किया ?
यदि आयोग की इस फ़ौरी कार्यवाही से दूसरे नेताओं को सबक मिला होता और चंद दिनों में ही फिर एक मामला और वह भी एंटी फेमिनिज्म सरीखा न आया होता तो कह सकते थे समुचित कार्यवाही हुई है ! लेकिन ऐसा हुआ नहीं ! उल्टे कांग्रेस के प्रबुद्ध नेता भाषा के धनी रणदीप सुरजेवाला पता नहीं क्यों संयम खो बैठे और अभिनेत्री सांसद हेमा मालिनी के लिए आपत्तिजनक अभद्र टिप्पणी कर बैठे ! और जब बात बढ़ी, वे सफाई देने लगे कि पूरा वीडियो सुनिए ! ठीक है पूरे वीडियो में आगे कहा उन्होंने कि हम हेमा जी का सम्मान करते हैं और वह हमारी बहू है चूँकि धर्मेंद्र जी से शादी की है ; परंतु पहले जो कहा ( दोहराया जाना उचित नहीं होगा ) उसके बाद ऐसा कहना तो तंज नुमा ही कहलाएगा ना !
नसीहतें जो आयोग देता है, उनका तो पहले से ही चुनाव आचार संहिता में उल्लेख है ; सवाल इस आचार संहिता के उल्लंघन का है. आयोग के दिशा निर्देशों को धत्ता बताते हुए जब राजनेता मनमानी पर उतर आयें तो ठोस कार्यवाही ही ऐसी मनमानी को रोक सकती है. चिंता यही है कि जब आचार संहिता लागू की जाती है, कठोरता से पालन कराये जाने की बात कही जाती है, परंतु वह कठोरता इसका उल्लंघन करने वाले “नेताओं” पर कार्यवाही के दौरान नज़र नहीं आती !
वैसे चुनावी नफ़े नुकसान के लिहाज़ से देखें तो कंगना और हेमा जी पर हुई अभद्र टिप्पणियाँ, चूंकि महिला विरोधी है, बीजेपी को माइलेज दे रही हैं. बीजेपी नेता बखूबी एक्सप्लॉइट कर रहे हैं सुप्रिया और सुरजेवाला के बयानों को. मानें या न मानें कोई बहुत दूर की कौड़ी ले आया कि सारी की सारी नूराकुश्ती है .
ख़ैर, कुछ भी बोलें, बोलने की स्वतंत्रता जो है प्रजातंत्र में ! कुछ भी बोलो ना ! किसी चरणदास ने मोदी के मूड फोड़ने का ही आह्वान कर दिया, नवीन जिंदल को जूते मारने की राय दे डाली ! बदजुबानी कौन सी नई बात है ?चुनावी कैंपेन में भाषाई मर्यादाएं हर रोज तार-तार होती रहेगी. कुछ नेता बदजुबानी करने से बाज नहीं आएंगे. वे अपने विरोधियों पर निशाना साधते वक्त गटर वाली सड़ी भाषा का इस्तेमाल करने से पीछे नहीं रहेंगे. कल भी यही हुआ था, आज भी हो रहा है और कल भी होगा ; मास्टरजी (आयोग) सख्त जो न थे, न हैं. पिछले चुनावों के दौरान ही जेएनयू से पढ़े कन्हैया सड़कछाप भाषा ही बोलते रहे थे, राहुल गाँधी स्वयं मोदी के लिए तू तड़ाक करते रहे हैं मसलन 'हार नहीं वह भाग जाएगा' - 'मोदी डरपोक है' - 'वह कायर है'. कहने का मतलब टुच्ची भाषा में तकरीर देना ही पॉलिटिक्स है आज ! बस उम्मीद ही कर सकते हैं कल कोई अटल जी सरीखा ओजस्वी नेता आएगा जिसने कभी भी भाषा के मार्फ़त कमर के नीचे प्रहार (बिलो द बेल्ट) नहीं किया !
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