यूं तो टैग लाइन अनेकों हैं लेकिन “मैदान में उतरना ग्यारह पर दिखना एक” फ़िल्म “मैदान” के शीर्षक के औचित्य को निरूपित करता है !

मैदान एक स्पोर्ट्स ड्रामा है जो फुटबॉल कोच सैयद अब्दुल रहीम की बायोपिक है. कौन था रहीम तो दुर्भाग्य ही कहेंगे एक शख़्स, जिसने देश में खेल में क्रांति ला दी थी, के बारे में हममें से बहुतों को पता ही नहीं है ! स्पोर्ट्स आधारित कई बेहतरीन फ़िल्में आई हैं मसलन ‘हिप हिप हुर्रे’, ‘चक दे इंडिया’ आदि लेकिन तकनीकी रूप से और  अजय देवगन के यादगार परफॉरमेंस की वजह से मैदान मील का पत्थर साबित होने जा रही है. कमजोर पक्ष सिर्फ़ म्यूजिक है साथ ही गाने भी ; दोनों की जुगलबंदी से बने गीत संगीत सुने सुने से लगते हैं. एक और बात जो खटकती है वह रहीम के बार बार सिगरेट पीने वाले दृश्य ! सो हेड्स ऑफ टू निर्माता बोनी कपूर, निर्देशक अमित शर्मा और अजय देवगन ! 

बात सादृश्यता की करें, समानता करें, तो चुनावी मैदान ध्यान आता है. ऑन ए लाइटर नोट पार्टियों को टीम समझ लें ; जिस टीम के खिलाड़ी( प्रत्याशी) मैदान में एक दिखेंगे  वही टीम चुनावी मैदान में जीतेगी. इस लिहाज़ से तो बीजेपी की जीत पक्की हुई ना, अलग अलग प्रत्याशी हैं लेकिन नज़र मोदी ही आते हैं ! 

एक और संजोग देखिए, फ़िल्म पाँच सालों तक (2019 से) मेकिंग में थी और अब जब चुनाव हो रहे हैं, सिनेमाघरों में उतरी है. तब के फुटबॉल के खेल और खेल को खेलने वालों में कहीं धर्म आड़े नहीं आता और ना ही जाति आड़े आती है, हाँ, आड़े आता है क्षेत्रवाद मसलन खिलाड़ी बंगाली है, हैदराबादी है, तमिल है, नार्थ इंडियन है !  'मैदान' के हैदराबादी कोच की लड़ाई इसी क्षेत्रवाद से है और आज के इस चुनावी मैदान में भी क्षेत्रवाद की लड़ाई मुखर है ! 

फुटबॉल और इसको खेलने वालों का समुदाय अमूमन हाशिये पर रहा है, परंतु पचास से साठ तक वाला दशक निःसंदेह स्वर्णिम काल था जिसका श्रेय जाता था सिर्फ़ और सिर्फ़ रहीम सर को और उनकी राष्ट्रीयता की सोच को कि न  कोई हिंदू है न मुसलमान ; न ही बंगाली और न ही हैदराबादी या फिर मलयाली या मणिपुरी !

कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना सो क्रिटिक्स कमियाँ निकालेंगे ही ; परंतु फ़िल्म मस्ट वॉच है, क्यों है , कैसे है , क्या है, डिटेलिंग के बजाय सिर्फ़ इतना भर बता दें कि फ़िल्म ना देखी तो बाद में कभी ओटिटी या मूवी चैनल पर देखते समय अफ़सोस ही होगा.  लंबाई अपेक्षाकृत ज्यादा है, 3 घंटे है. फिर फर्स्ट हाफ सेट-अप में निकलता है . कहने को कोई क्रिटिक कह देगा, बता भी देगा कि छंटाई बड़े आराम से हो सकती थी. मगर सेकंड हाफ तेज़ रफ्तार में घटता है और इस कदर घटता है कि आख़िरी का आधा घंटा पिछले ढाई घंटे पर भारी पड़ता है ! 

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Prakash Jain

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