बुनियादी सुविधा नहीं ,नौकरियां नहीं, लोग रेवड़ियों का क्या करेंगे ?

पब्लिक आजिज आ गयी है मुफ्तखोरी से ! कोरोना काल में मुफ्त अनाज एक जरूरत थी, चूंकि "रोज कुआं खोदना और पानी पीना" संभव जो नहीं था. राजनीति में रेवड़ी संस्कृति (फ्रीबी) वो है जिसके तहत मुफ्त का वादा करके या मुफ्त बांटकर वोट एकत्र किए जाते हैं और बाँटने वाली पार्टी इन रेवड़ियों को जन कल्याणकारी योजनाएँ बता देती है. दरअसल दोनों के बीच एक पतली रेखा होती है और कभी कभी फर्क परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है मसलन कोरोनाकाल में मुफ्त अनाज बांटे जाने की योजना ! 

जन कल्याण किसी भी शासन का धर्म होता है और फिर तंत्र प्रजा का हो तो बाई डिफ़ॉल्ट जन कल्याण मस्ट है चूँकि लोकतंत्र जनता की जनता द्वारा जनता के लिए सरकार है ! चुनाव नज़दीक आते हैं और हर सरकार रेवड़ियाँ बांटती है जिन्हें वह जन कल्याणकारी योजनाओं का नाम देती है. पार्टी जो सरकार में नहीं है, वह भी लोक लुभावन वादों की आड़ में रेवड़ियाँ गिना ही देती है. वैसे बहस बेमानी है कि क्या रेवड़ी है और क्या जन कल्याणकारी योजना के तहत है ? सिंपल सा टेस्ट है जिस चीज के मिलने से स्वाभिमान को चोट पहुँचती हो, वह रेवड़ी है. हाँ, स्वाभिमान के लिए अलग अलग मान्यताएँ होती है सामाजिक वजहों से, आर्थिक वजहों से और कभी कभी परिस्थिति जन्य वजहों से. 

खैर , इस फर्क को समझाया महाराष्ट्र के के पालघर के आदिवासी गांव वसंतवाड़ी की ट्राइबल महिलाओं ने. कुछ दिनों पहले ही क्विंट प्रिंट ने खबर दी थी इस बारे में ! पिछले साल ही नवंबर में महाराष्ट्र सरकार ने 2028 तक सरकार की पसंद के त्योहार के दौरान हर साल 'अंत्योदय' राशन कार्ड रखने वाली महिलाओं को मुफ्त साड़ी प्रदान करने की योजना शुरू की थी.चुनावों की घोषणा होने और 16 मार्च को आदर्श आचार संहिता लागू होने से कुछ दिन पहले ही कई गांवों के लोगों को सरकारी राशन की दुकानों पर ये बैग और साड़ियां मिलीं. वे यहां केंद्र की प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त राशन लेने गए थे. इन्हीं गांवों में से एक है मुंबई से 120 किमी को दूरी पर स्थित 250 परिवारों का आदिवासी गांव वसंतवाड़ी, जहाँ  टूटी हुई सड़कें हैं , कच्चे घर हैं, पानी के लिए हैंडपंप भर (हर घर नल कागजी खाना पूर्ति है ) है. यहाँ भी महिलाओं को एक एक साड़ी और मोदी की लगी तस्वीर वाला एक एक बैग मिला. 

लेकिन 3 और 8 अप्रैल 2024 को, पालघर के 23 गांवों की सैकड़ों आदिवासी महिलाओं ने, सामाजिक कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में, जव्हार और दहानू तहसीलदार कार्यालयों तक मार्च किया और इनमें से 300 से अधिक साड़ियां और 700 बैग वापस कर दिए. वसंतवाड़ी की 52 वर्षीया लाडकुबाई कहती है, "अगर आपने हमें नौकरी दी होती, तो हम ये साड़ियां खुद खरीद पाते. मोदी सरकार हमें साड़ी देने वाली कौन होती है? आपको लगता है कि हम अपने कपड़े नहीं खरीद सकते? हम इनसे अच्छी साड़ियां खरीदेंगे. हमें काम चाहिए, हम मेहनती हैं. हम घर पर नहीं बैठे हैं." सबों ने सुर में सुर मिलाये, "हमें मुफ्त की चीजें मत दीजिए, हमें नौकरियां दीजिए, बेहतर स्कूल, बेहतर सड़कें और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं दीजिए।" 

Ladkubai (left) and Mamata Vattha show the bags they received at the ration shop in March. The bag bears a picture of PM Modi along with an advertisement of the Pradhan Mantri Garib Kalyan Yojana (PMGKAY).

सही भी है गांवों में बुनियादी सुविधाओं के अभाव की स्थिति में महिलाओं को  मुफ्त साड़ी और बैग देने का क्या औचित्य है ? इन आदिवासी गांवों में कोई रौशनी नहीं है(हर घर बिजली सिर्फ कागजी है), सड़कें भी टूटी फूटी है (जबकि दावा है महीने भर में सड़कों को बनवाने के तीन वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाये हैं भारत सरकार ने), औरतें सुबह 4 बजे उठती है पानी जो लाना है निकटतम बोरवेल से जहाँ पहुँचने के लिए तीस मिनट पैदल चलना पड़ता है, सर पर दो तीन बर्तन होते हैं और कमर पर भी एक !           

एक सही शुरुआत तो की महिलाओं ने राजनीतिक पार्टियों को आईना दिखाने की. जरूरत है इस शुरुआत को व्यापकता मिलने की ! लेकिन मिले कैसे ? ये न्यूज़ आती जो नहीं टीवी पर, प्रिंट मीडिया में ! तो क्यों ना एक जन आंदोलन चले ? क्यों न सोशल मीडिया पर #SayNoToFreebies और #WelcomeBasicNeeds/Facilities की स्टॉर्मिंग हो?  किसी शायर ने क्या खूब कहा भी है,"हिम्मत है तो बुलंद कर आवाज़ का आलम, चुप बैठने से हल नहीं होने का मसअला !"             

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Prakash Jain

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