बड़े धोखे हैं इस डिजिटल राह में, फिर भी चलना है, चलते जाना है ; सो धीरे चलना, संभल के चलना !

बड़ा ही कॉमन सा सवाल कल भी था, आज भी है और हमेशा रहेगा - आपकी/तुम्हारी हॉबी क्या है ? कोर्ट-शिप का प्रथम दिन हो, या फिर अरेंज्ड मैरिज के लिए एक दूसरे को देखने मिलने की प्रक्रिया के दौरान हो, या फिर उम्र के किसी भी पड़ाव पर किसी से मित्रवत होने पर पहला नहीं तो एक सवाल निश्चित ही होता है कि तुम्हारे शौक क्या हैं ? कुल मिलाकर तात्पर्य है कि आपके पास एक हॉबी होनी चाहिए, दैनन्दिनी या रूटीन कामों/रोजगार से अन्यथा रूचि भी होनी चाहिए. निःसंदेह इससे बड़ी ख़ुशी मिलती है.          

शोध से पता चलता है कि युवा टीवी की तुलना में 2.5 गुना अधिक शौक रखते हैं, फिर भी टीवी देखने या सोशल मीडिया स्क्रॉल करने में 4 गुना अधिक समय बिताते हैं. अजीबोगरीब आधुनिक समय का एक विरोधाभास ही है ये, जबकि यह एक सार्वभौमिक सत्य है शौक बुद्धि और शारीरिक क्षमताओं को बढ़ाता है और दूसरी तरफ़  सोशल मीडिया ने युवाओं को समय से पहले चश्मा, फोन की लत और मोटापे से ग्रस्त कर दिया है. 

आज हममें से कुछ लोगों को सालसा नृत्य करना पसंद है ; अन्यों को पर्वतीय पगडंडियों पर ट्रैकिंग ; परंतु एक निश्चित समूह जुनून की हद तक टिक टॉक पर स्टफ देखता है ! जब एक रिसर्च के निष्कर्ष को सुना कि हम चार में से एक सोशल मीडिया पर स्क्रॉल करने को ही अपनी रियल हॉबी मानता है और गर्व से ऐसा कहता भी है, जबरदस्त ठेस सी लगी.  इसी रिसर्च  के मुताबिक़ 10 में से एक ने स्वीकार किया कि उनके पास कोई अन्य "शौक" नहीं है; 10 में से चार ने कहा कि उन्होंने अपना अधिकांश खाली समय स्क्रीन स्क्रॉल करने और टीवी देखने में बिताया ;  एक तीसरे ने माना कि जितना समय वह सोशल मीडिया पर बिताता हैं, वह वस्तुतः उसे अन्य रुचियों को आगे बढ़ाने से रोक रहा है.

वस्तुतः आज क्या हो रहा है ? अपवाद स्वरूप ही या कहें तो कल्पना ही की जा सकती है कि कोई है जिसने टीवी नहीं देखा या जिसने टीवी रखा ही नहीं है. क्या है कोई जिसने सिर्फ बर्नर फोन ही यूज़ किया है या सिर्फ तब तक लैंडलाइन यूज़ की है जब तक कॉलर आईडी आदि ईजाद नहीं हुए थे ? 

जाने कहाँ गए वो दिन जब सूरज की पहली किरणों के अनमोल क्षणों को ध्यान करने या ड्रीम जर्नलिंग करने, या खिड़की के बाहर मन प्रफुल्लित करने वाले पक्षियों की चहचहाहट या गायन  को सुनने में बिताते थे ? आज सुबह आँखें बाद में खुलती है, डिवाइस की ओर हाथ पहले बढ़ता है.और बिना सोचे-समझे फेसबुक/इंस्टा/व्हाट्सप्प के रील्स और फ़ॉर्वर्डेड वीडियो देखते हैं, यूट्यूब पर वीडियो देखते हैं या फिर न्यूज़ चैनल के एंकरों की शर्मनाक क्लिपें ! 

सोशल मीडिया स्क्रॉल करने को शौक की संज्ञा नहीं दी जा सकती. दरअसल हम अपने जेन्युइन शौकों का आनंद उठाना भूल गए हैं. हॉबी, हैबिट और एडिक्शन के विश्लेषण में ना जाते हुए बस इसे गॉस्पेल ट्रुथ के मानिंद ही लें कि सोशल मीडिया स्क्रॉल करना अन्यमनस्कतापूर्वक गतिविधि ही है. शौक किसी के भी दिमाग के लिए बहुत अच्छे होते हैं जिसके मार्फ़त कोई किसी को दिखा सकता हैं कि वह एक निश्चित कौशल में कितना प्रतिभाशाली हैं. हालाँकि, लत शौक से बहुत अलग होती है क्योंकि वह, जिसे लगी है, एक ही गतिविधि का 'आदी' बन जाता हैं. हॉबी पर आप बहुत अधिक समय खर्च नहीं करते हैं और आप इससे कुछ सीख सकते हैं क्योंकि शौक अमूमन प्रोडक्टिव होते हैं, उदाहरणार्थ एक इंस्ट्रूमेंट सीखना, एक अलग भाषा सीखना, एक खेल सीखना यानी  हर शौक में 'सीखना' शामिल है. ठीक इसके विपरीत कोई भी "टीवी देखने" को शौक नहीं कहेगा और ना ही सोशल मीडिया स्क्रॉल करने को जोकि और भी बुरा है. ये व्यसन है, एडिक्शन हैं ठीक वैसे ही जैसे ड्रग्स हुआ, वीडियो गेम्स हुए, शराब हुई.  इन पर जब आप बहुत अधिक समय बिताते हैं और आम तौर पर चूँकि ऐसी गतिविधि प्रोडक्टिव नहीं होती, ये व्यसन कहलाते हैं. हाँ, कुछ व्यसन उत्पादक हो सकते हैं, उन्हें आप अच्छे व्यसन कह सकते हैं. परंतु वो कहते हैं ना अति हर चीज की बुरी होती है सो जब व्यसन की अति होने लगती है, वे प्रतिकूल ही होते हैं.  

जाहिर तौर पर कोई लत नहीं लगाना चाहेगा, लेकिन कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता है और हममें से बहुतों को लत होती है. अब यह प्रश्न उठता है; 'मैं अपनी लत से कैसे छुटकारा पा सकता हूं?' खैर, किसी लत को छोड़ने में 21 से 90 दिन तक का समय लग सकता है. लेकिन इसे अपने ऊपर हावी न होने दें, लगातार बने रहें, छोटे-छोटे कदम उठायें, नशे पर, एडिक्शन पर खर्च होने वाले समय को धीरे-धीरे कम करें और अंततः यह लत नहीं रहेगी. एक ख़ास बात, शौक वे गतिविधियाँ हैं जो आप अपने खाली समय में करते हैं ; व्यसन ऐसी गतिविधियाँ हैं जो आप अपने खाली समय और अपने काम के समय करते हैं ; शायद शौक और लत के बीच यही मुख्य अंतर है. निश्चित रूप से एक तर्क है कि सोशल मीडिया के लिए सामग्री बनाना एक वैध शौक है. लेकिन, किसी बॉक्स सेट को बार-बार देखने की तरह, स्क्रॉल करना सृजन के विपरीत है. बल्कि, यह अन्य लोगों द्वारा बनाई गई सामग्री का निष्क्रिय उपभोग है. 

इस डिजिटल वर्ल्ड में विभिन्न डिजिटल डिवाइस जरूरत बन गए हैं, इनका बॉयकॉट कदापि व्यावहारिक नहीं है. सब कुछ तो डिजिटल हो गया है, ऑनलाइन है ; बैंकिंग हो , एजुकेशन हो, मेडिकल हो , बिज़नेस हो या फिर एग्जाम ही क्यों ना हो ! कुल मिलाकर इंटरनेट अपरिहार्य है, #NoToInternet या #NoToAllApps या #NoToTechnology की बात ही बेमानी है. आज गैजेट्स खासकर मोबाइल फ़ोन पर अत्यधिक निर्भर होना और इसके साथ जरुरत से ज्यादा समय बिताने की बात सभी मानते हैं. हालांकि मोरल हर पल याद रहता है कि अति हर चीज की बुरी होती है; फिर भी हम अति कर रहे हैं. ऐसे में अनेकों बार डिजिटल डिटॉक्स, फ़ोन डाउनग्रेड करना या सोशल मीडिया से पूरी तरह से दूर रहने के सुझाव मिलते हैं ; परंतु अक्सर कारगर नहीं होते ! सवाल है क्या टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए इसके साथ स्वस्थ संबंध बनाये रखना संभव है ? जवाब "हाँ" में है ! इसके लिए इस पर नियंत्रण की जरूरत है. आवश्यकता इस बात की है कि गैजेट को ऐसे टूल के रूप में स्वीकार किया जाये जिसका उपयोग हमें स्वयं को तय करना है.      

आज जब नित हैबिट फार्मिंग प्रोडक्ट्स ईजाद किये जा रहे हैं, हम फंस गए हैं. बिना एहसास हुए ही फ़ोन तक पहुंचने की तीव्र इच्छा होती है.  खासकर सोशल मीडिया के दुष्चक्र में तो इस कदर कि बेवजह अनगिनत बार स्मार्ट फोन उठाते हैं, स्क्रॉल करते हैं और हर बार औसतन कम से कम दो मिनट बर्बाद करते हैं. टेक्नोलॉजी के साथ सह अस्तित्व के लिए ऐसी इच्छाओं पर नियंत्रण जरूरी है. अहम् है माइंडफुलनेस ! अगली बार जब आपको फ़ोन उठाने या सोशल मीडिया पर जाने की इच्छा है, तो इसे नोटिस करें ; आप जैसे ही उस आवेग के प्रति सचेत होते हैं, तो आटोमेटिक चलने वाली प्रक्रिया बाधित होती है. यह मस्तिष्क के उस हिस्से को जागृत करती है जो "सेल्फ कंट्रोल (आत्म संयम)" को ट्रिगर देता है. अपने आवेग को पहचानना आदतों पर लगाम की ओर पहला कदम है. गैजेट्स शाश्वत हैं आज, इनसे हम हमेशा के लिए भाग नहीं सकते. लेकिन इच्छाओं के प्रति सचेत होकर आदतें काबू कर सकते हैं. क्यों ना कहें हर किसी को सेल्फ रेहाब की जरूरत है, सिर्फ डिग्री का फर्क है ? 

कहने का मतलब तकनीक के साथ सामंजस्य बनाने की दिशा में छोटे छोटे कदम उठाने पड़ेंगे. और ये अनेकों हैं, जो निर्भर करते हैं कारकों पर, परिस्थितियों पर, अवस्था पर ! कई टिप्स और ट्रिक्स कॉमन भी होंगी मसलन चलते समय फ़ोन का उपयोग न करें, वाक पर हैं तो नोटिफिकेशन बंद कर दें, डाइनिंग टेबल पर बिना गैजेट के बैठें. गैजेट्स से लंबी छूती संभव नहीं, पर रोज १०-१५ मिनटों के ब्रेकों के समुचित अंतराल तो फ्रेम कर ही सकते हैं जिनके दौरान हम ऑंखें बंद कर लें या तेज सैर ही करें या फिर कोई पजल ही सुलझाएं. 

क्यों ना हम फ़ोन में अलार्म लगाने के बजाय अलार्म क्लॉक रखें ? फ़ोन में अलार्म लगाने से हम उसे उठाने को मजबूर होते हैं. ज़रा सोचें क्या उन्हें, जो रिटायर हो चुके हैं, जो सीनियर सिटिज़न हैं, सोशल मीडिया की दरकार है ? शायद नहीं ! कनेक्ट करना हो तो नंबर लगाकर बात कर लें, कम्यूनिकेट करना हो तो ईमेल भेजें और लिखना पढ़ना हो तो प्रिंट हैं, टीवी चैनल पर विश्लेषणात्मक कम अनर्गल ज्यादा बहसों को क्यों देखें ? 

सौ बातों की एक बात है स्क्रीन टाइम कम करने के लिए स्वयं को ही रेगुलेट करना पड़ेगा. डिजिटल जीवन में भी हमें अपने मार्ग से भटकाने वाले कई विकल्प/ऍप/नोटिफिकेशन रोजाना मिलते हैं ; ये हावी न हों इसलिए आत्म अनुशासन से आत्म नियंत्रण करना ही होगा. इससे हम सुरक्षित भी होंगे. हम अपनी डिजिटल लाइफ विभिन्न प्रकार के ऐप्स, डिवाइस और अकाउंट के मार्फ़त जीते हैं ; उनमें से प्रत्येक पर हम एक ब्रेडक्रंब (हमारी गतिविधियों का फुटप्रिंट) छोड़ देते है जिसे विज्ञापन के लिए या पहचान की चोरी के लिए आसानी से एक्सप्लॉइट किया जा सकता है. ठीक है कि  तकनीक ने चेक बना दिए हैं मसलन पासवर्ड मैनेजर और टू फैक्टर आइडेंटिफिकेशन लेकिन साल में एक बार मात्र आधा घंटा समय निकाल कर क्यों ना हम उन एकाउंट्स को बंद कर दें जिनकी जरूरत है ही नहीं !निश्चय ही इससे बेहतर गोपनीयता के साथ साथ बेहतर परफॉर्मेंस भी परिलक्षित होगी. अपने प्रत्येक ऑनलाइन खाते या सर्विस को एक घर में एक खिड़की के रूप में सोचें - आपके पास जितनी अधिक खिड़कियाँ होंगी, किसी के लिए यह देखना उतना ही आसान होगा कि अंदर क्या है !

उन ऐप्स को हटाने में हर दो महीने में कुछ मिनट लगाना सबसे अच्छा है जिनकी आपको आवश्यकता नहीं है.अक्सर हम सभी प्रकार के ऐप्स डाउनलोड करते हैं, या तो नई सेवाओं को आज़माने के लिए या इसलिए कि कोई स्टोर हमसे कुछ ऐसा डाउनलोड करवाता है जिसे हम शायद एक ही बार उपयोग करेंगे और संभवतः भूल जाएंगे. कोई ऐप डेटा के लिए ब्लैक होल हो सकता है, गोपनीयता संबंधी चिंताएं पैदा कर सकता है, या सुरक्षा मुद्दों के लिए एक वेक्टर के रूप में काम कर सकता है. इसी प्रकार कई सॉफ्टवेयर होते हैं जो हम यूज़ ही नहीं करते. कई बार हम ऐसे डेटाबेस सर्च करते हैं जिनपर अपनी इंफो भी जाने अनजाने डाल देते हैं. कहने का मतलब है स्क्रॉलिंग की, बेवजह सर्फिंग की आदत कितनी घातक हो सकती है, अंदाजा लगा लीजिए. सो इसलिए भी हर किसी के लिए निज की ऑनलाइन एक्टिविटी को नियंत्रित करना एक अनिवार्यता बन गई है वरना कुछ भी भुगतना पड़ सकता है. आपकी प्राइवेसी दांव पर लग सकती है, आप अपना पैसा खो सकते हैं, लाइक-डिसलाइक-साइबर बुलिंग-असहज सामग्रियां-फेक फ्रेंड्स- मूड स्विंग्स-फोमो  के दुष्चक्र में फंसकर इस कदर हताश हो सकते हैं कि सुसाइडल टेंडेंसी डेवलप कर लें.             

आपकी रेगुलेटेड डिजिटल लाइफ का पैटर्न क्या होगा - कई फ़ैक्टर्स काम कर रहे होते हैं मसलन आपकी आयु, आपका शैक्षणिक और बौद्धिक स्तर, आपका वर्क आदि आदि.. इसी तारतम्य में इनफ़ोसिस के को फाउंडर और आधार के क्रिएटर नंदन नीलेकणि की थ्योरी का जिक्र लाजमी है. वे क्या कहते हैं, उन्ही के शब्दों में - " If you have one device and some 10 apps open and they are all sending you notifications all the time, then that  is a recipe for not being able to focus...... when we keep shifting from writing an email to seeing some notification, headline or forward, you are all over the place. The brain can't deal with it. And, each time you switch, you must again re-position your mind and that is very expensive to do." आप आश्चर्य करेंगे नंदन नीलेकणि सरीखा टेक दिग्गज सोशल मीडिया यूज़ ही नहीं करता. हालांकि इसे बताने का अभिप्राय कदापि नहीं है कि आप भी सोशल मीडिया तज दें ; क्योंकि हो सकता है आप एक युवा है और आपको फ्रेंड्स से कनेक्टेड रहना होता है. फिर भी आपके अपने सेल्फ रेगुलेशंस होने ही चाहिए ताकि अवांछित स्टफ से अछूते रहें आप ! नीलेकणि और बताते हैं - " In the create mode to work and be focused without any distraction, I use a laptop positioned at a definite point with good lighting. For the curate mode to read or watch or just browse, I use an IPad ; and for the communicate mode to talk to people through various channels, I use the phone." 

वास्तव में तीन अलग अलग डिवाइस तीन अलग अलग मोड - create , curate और communicate - के लिए आदर्श ऑप्शन है ध्यान केंद्रित करने के लिए. कुल मिलाकर ऑप्शन कई हैं जिनमें से सेट ऑफ़ ऑप्शंस खुद के लिए खुद ही तलाशना है. 

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Prakash Jain

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