Election is not FOR CHANGE but FOR EXCHANGE !

हाल ही कमल हसन की एक साउथ इंडियन फिल्म “इंडियन 2” देखी थी, कुछ ऐसा ही वन लाइनर पंच था, जो शीर्षक है यहां ! प्री-इलेक्शन आचार संहिता के दौरान वादों की जो झड़ी लगती है, मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर स्मरण हो आया - 

तेरे वादे पे जिए हम ये जान तू भूल जाना, 

कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता ! 

आम आदमी, जो वोटर भी है, जो ग़रीबी में, ग़रीबी की रेखा पर, ग़रीबी की रेखा के नीचे है, वह इसलिए जी रहा है कि उसे विभिन्न रंगों की सरकारों(भगवा भाजपा का, आसमानी नीला कांग्रेस का, गहरा नीला बहुजन का, लाल कम्युनिस्ट और समाजवादी का, हरा टीएमसी, बीजू ,जेडीयू का) के वादों पर भरोसा नहीं है.  भरोसा हो जाए तो वह ख़ुशी से मर न जाए ! वह आदमी, जो वोटर है, अविश्वास , निराशा और साथ ही जिजीविषा लेकर जी रहा है. पचहत्तर से तीन ज्यादा साल हो गये, अब तो आदत ही हो गई है ; वो कहते हैं ना 'दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना !' उसके भले की हर घोषणा पर, कार्यक्रम पर, वह खिन्न होकर कहता है - ऐसा तो ये कहते ही रहते हैं. होता वोता कुछ नहीं, इतने सालों से पहले दादा ने देखते देखते उम्र पूरी की, अब बाप भी देख रहा है, आगे हम भी देखते देखते जी ही लेंगे और गर्व से वादाख़िलाफ़ी की शताब्दी भी धूमधाम से मनायेंगे ! जनता नियति मान बैठी है कि प्रभु राम की यही इच्छा है, जय श्री राम !  चुनावी नारों से चुनाव भर जीते जाते हैं. नारों  की बात करें तो  1971 में 'गरीबी हटाओ'  ने गरीबी हटा दी थी ना ! दस सालों से सबका साथ सबका विकास में सबका विश्वास और फिर सबका प्रयास जुड़ता चला गया ! जनता ने वोट देकर साथ दिया, चूंकि विश्वास किया और प्रयासरत भी हैं ! और विकास की बात करें तो खूब हुआ लेकिन चंद लोगों का ही और साथ ही नेता गण भी खूब फल फूल रहे हैं ! बहुत से ऐसे लोग हैं जो दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते ! सबका विकास तो तब होगा ना जब आर्थिक विषमता दूर होगी ! 

संविधान के राजनीतिक क्षेत्र में वोटिंग के समान अधिकार का क्या औचित्य जब अन्य क्षेत्रों में असमानता है ? एक व्यक्ति एक वोट अधिकार तो मिला, आर्थिक समानता नहीं ! बल्कि आर्थिक विषमता तो दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है. यहीं अंबेडकर फेल कर दिये गये, प्रजातंत्र नेता तंत्र में तब्दील जो हो गया है. 

हमारा समाज कई श्रेणियों में इस कदर बंटा हुआ है कि लोग एक से  निकलकर दूसरे में जा नहीं सकते ! कैसे कहें कि  आर्थिक और सामाजिक न्याय असमानताओं को दूर करने के प्रयास हुए हैं ? दरअसल नीयत जो नहीं है पोलिटिकल क्लास की ! आरक्षण को बपौती बना रखा है, पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण लेते रहे हैं, सुविधा संपन्न हो गए लेकिन आगे भी आरक्षण चाहिये. हाँ, नेतागीरी चमकाने के लिए सबसे निचले विपन्न वर्ग तक पहुँचने की बात ज़रूर करेंगे ! 

और कभी किसी ने इच्छा जताई भी कि बदलाव किया जाए तो तमाम राजनीतिक पार्टियाँ  न हाँ और न ही ना बोलती है यानि चुप्पी साध लेती है ! और फिर पोस्चरिंग ऐसी होती है कि मामला ठंडे बस्ते में डल जाता है ! अब देखिए ना सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के कुछ सदस्यों ने आरक्षित वर्गों में से क्रीमीलेयर के छोड़ाव की आदर्श ओपिनियन क्या दी, राजनीति इस कदर उबाल खा गई कि बावजूद केंद्र सरकार के आश्वासन के भारत बंद करवा दिया !  कहने का मतलब शीर्ष अदालत ने सिर्फ़ एक बात रखी, कथित जनहित में सरकार ने नकार दिया, फिर भी भारत बंद किसके हित में ? अजीब सा तर्क है कि आरक्षण भेदभाव की वजह से दिया जा रहा है, कमाई की बिना पर आरक्षित वर्ग से बहिष्करण गलत है संविधान के विरुद्ध है ! जबकि पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेकर संपन्न हुआ आरक्षित वर्ग का हिस्सा भेदभाव की वजह बन गया है आज और यही दिखा भी इस भारत बंद के दौरान ! एससी एसटी ही धड़ों में बंट गया - वंचित धड़ा बनाम संपन्न धड़ा !  

पार्टियां करती क्या हैं ? जब शासन में आती है, एक दो और नए दिवस घोषित कर देती है. पहले संविधान दिवस घोषित कर दिया और फिर संविधान हत्या दिवस भी ! हमें तो यही समझ आता है दिवस कमजोर का मनाया जाता है, जैसे महिला दिवस, टीचर्स डे , मजदूर दिवस ! हाँ, जो अपवाद स्वरुप हैं , वे सही मायने में दिवस है जैसे आर्मी डे, स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र दिवस ! परंतु जिस प्रकार सिलसिला बना है ख़ास दिन को दिवस घोषित कर देने का, वह दिन दूर नहीं है जब हर दिन ख़ास दिवस कहलायेगा. तभी तो साल के सभी दिनों के लिए लोकतंत्र स्थापित होगा ना !

दरअसल शुचिता नेताओं के लिए वर्जित है ! पॉलिटिक्स व्यापार हो गया है और वह भी गंदा व्यापार ! क्या गजब की ख़रीद फ़रोख़्त होती है ! नेता ख़रीदे बेचे जाते हैं और जनता को ख़रीदने की ज़बर्दस्त प्रतिस्पर्धा है पॉलिटिक्स में ! सब कुछ फ़ायदे के लिए ही किया जाता है और अधिकतम फ़ायदे के लिए इन्वेस्टमेंट किया जाता है मुद्रा रूपी साम दाम दंड भेद का ! साम है लोक लुभावन वादे, दाम है रेवड़ियां यानि फ़्रीबी, दंड के धारक हैं सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, प्रशासन और भेद हैं वोटों के लिए लोगों में फूट डालने के हिंदू मुस्लिम, मंदिर श्मशान , ऊँची जाति नीची जाति, इतिहास से छेड़छाड़, चरित्र हनन जैसे निकृष्ट हथकंडे ! 

प्रजातंत्र का आदर्श “ जनता का जनता द्वारा जनता के लिए” कब का छू मंतर हुआ ! अब तो जनता को सिर्फ़ मूर्ख कह देना भी नाकाफ़ी है ! नया आदर्श है “अंध भक्तों का अंध भक्तों द्वारा अंध भक्तों के लिए” और अंध भक्त होने के लिए प्रचंड मूर्ख होना अनिवार्य शर्त है! 

राजनीतिज्ञों के लिए जनता सिर्फ़ नारे और वोट हैं और जब जो पार्टी जीतकर सरकार बना लेती है उसके लिए हम सिरदर्द हो जाते हैं !  चुनाव परिणाम आते हैं, जनता के वोट से नेता पहले कुर्सी और फिर मंत्रीपद पर विराजमान होंगे. पूरे पांच साल सत्ता का सुख भोगेंगे. सो जनता की उपयोगिता सिर्फ़ इतनी है कि उसके वोट से मंत्रिमंडल बनते हैं ! हमारे लोकतंत्र की यह ट्रेजेडी और कॉमेडी है कि कई लोग जिन्हें आजन्म जेलखाने में रहना चाहिए वे जिन्दगी भर संसद या विधानसभा में बैठते हैं ! ऐज़ ए रूल, वन टू ऑल वाइट कॉलर भ्रष्ट हैं और चूंकि हर रूल के अपवाद भी होते हैं, कुछेक मंत्री, सांसद, विधायक अपवाद हो सकते हैं ! भ्रष्टाचार का हर आंदोलन खेल है, जिसके खिलाड़ी भ्रष्ट होते हैं जैसे फुटबॉल के खिलाड़ी वही होते हैं जो फ़ुटबॉलर हैं, क्रिकेट वही खेलते हैं जो क्रिकेटर हैं ! नौसिखिए नहीं खेल सकते और यदि खेले भी तो चोटिल ही होते हैं ! 

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Prakash Jain

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