कहने का मतलब इसकी जद में बहुत ही ज्यादा अमीर लोग भर ही आएं ! कैपिटल गेन्स पर टैक्स में हालिया जो बदलाव किये गए हैं, वे तो अपर मिडिल क्लास को सजा दे रहे है, सुपर रिच के लिए तो आटे में नमक बराबर ही हैं, उनपर क्या ही असर पड़ना है ? पॉइंट है कैसे उन अरबपतियों से कम से कम उनकी संपत्ति का दो फीसदी टैक्स वसूला जाए, चूंकि फिलहाल तो वे सिर्फ 0.3 फीसदी ही टैक्स दे रहे हैं. कुछ इस प्रकार समझें मुकेश अंबानी ने बेटे की शादी में 5000 करोड़ रुपये खर्च किये जो उनकी नेटवर्थ का मात्र 0.5 फीसदी है और जितना खर्च किया है, वह तो वे दो दिन में कमा लेते हैं. कहने का मतलब सुपर रिच क्लास के लिए एक अलग ही विशिष्ट टैक्स सिस्टम होना चाहिए ताकि उन्हें भी कर चुकाने में वही दर्द महसूस हो, जो आम करदाता को होता है. यही वजह है वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने ताजा बजट से ‘विशाल भारतीय मध्यम वर्ग' को निराश कर दिया.
अति व्यापक सोच ही थी G 20 समिट में ! दुनिया भर में ऐसे 3000 अरबपति हैं जो अपनी संपत्ति पर सिर्फ 0.3 फीसदी कर चुका रहे हैं, यदि वे दो फीसदी भर ही कर दें तो तक़रीबन 200 से 300 अरब डॉलर मिल जाएंगे जिसका इस्तेमाल सार्वजनिक शिक्षा व स्वास्थ्य को बेहतर करने और जलवायु परिवर्तन से लड़ने में किया जा सकता है.
कटु सत्य है कि भारतीय समाज में आर्थिक असमानता बड़ी तेज़ी से बढ़ती जा रही है. अमीरों को अमीर और गरीबों को गरीब होते जाने से रोकने के लिए सरकार के पास विरासत (INHERENT) टैक्स या बेहद अमीर लोगों पर लगने वाले वेल्थ टैक्स जैसे उपाय ही बनते हैं. चंद अमीर लोगों के पास सारी सुख सुविधा हैं और ज्यादातर गरीबों के पास कुछ भी नहीं. अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ता अंतर समाज में बड़ा मुद्दा बना हुआ है. ऐसा कैसे और कब तक चलेगा ?
बात भारतीय प्रजातंत्र की करें तो चुन कर आने वाले नब्बे फीसदी से ज्यादा जन प्रतिनिधि इस हद तक धनाढ्य हैं कि वोट देने वाले जन कहाँ टिकते हैं उनके सामने ? हालांकि इस आर्थिक असमानता की बात कोई नहीं करता, सूट जो नहीं करता ! जरूरत है आदर्श पेश करने की ताकि अनुकरणीय हो, प्रेशर नहीं !
सरकारों को कराधान के नए स्रोत खोजने ही होंगे ! कॉर्पोरेट टैक्स की दरें काफी कम कर दी गई हैं, इनकम टैक्स से आय भी सीमित होती जा रही है, निःसंदेह GST से शानदार आय हो रही है लेकिन राज्यों और केंद्र के मध्य फंड के बंटवारे को लेकर हो रही खींच तान छिपी नहीं है ! और बढ़ते भारत में बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए बहुत भारी खर्च की ज़रूरत है ; जबकि स्थिति ऐसी है कि आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया ! फिर उत्पादन बढ़ाने के लिए सब्सिडी देकर औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ाने के प्रयास, पूंजीगत व्यय द्वारा रोजगार पैदा करने के तमाम प्रयास उतने फलीभूत नहीं हुए हैं. ना ही लोगों को डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर कर और ना ही मुफ्त अनाज बांटकर ग्रामीण इलाकों की डिमांड को बढ़ाया जा सका है. ऊपर से महंगाई की मार भी बनी हुई है. नतीजन भारतीय समाज में मौजूद असमानता बढ़ती ही चली जा रही है. अंततः पैसे तो सबके लिए चाहिए जो पेड़ पर नहीं उगते ना ! यही तो कहा था ना हमारे देश के एकमेव इकोनॉमिस्ट प्राइम मिनिस्टर मनमोहन सिंह जी ने !
ग्लोबल डाटा बता रहा है कि पिछले सिर्फ एक दशक में अमीरों ने अपनी संपत्ति दोगुनी कर ली है, दूसरी ओर कई लोगों के लिए गुजारा चलाना मुश्किल हो गया है. सबसे अमीर लोगो को समाज से बहुत फायदा मिलता है. उनमें से कई हैं जिन्हें दौलत विरासत में मिली है और वे इसके बदले कुछ नहीं लौटाते ! सरासर अन्याय ही तो है ! तर्क जो अमूमन दिया जाता है, हालांकि कुतर्क ही है कि चूंकि बहुत से लोग हैं जो पर्याप्त टैक्स नहीं देते, इसलिए अधिक टैक्स लगाने से कंपनियां निवेश नहीं करेगी या रिसर्च नहीं करेगी और ना ही वे ज्यादा इनोवेटिव हो जाएंगी और भविष्य में ज्यादा नौकरियां पैदा करेंगी. बात सिर्फ इंडिया की नहीं है , साल 2022 में दुनिया की तक़रीबन 46 फीसदी दौलत सबसे अमीर एक फ़ीसदी लोगों के पास थी, इसके बाद की 53 फीसदी दौलत की मालिक करीब आधी दुनिया है, पर दुनिया की बाकी आधी आबादी के लिए दुनिया की कुल दौलत का तक़रीबन 1.2 फीसदी हिस्सा ही बचता है. इंडिया की बात करें तो कमोबेश यही स्थिति यहां है , 21 भारतीयों के पास 70 करोड़ लोगों से ज्यादा संपत्ति है, 5 फीसदी भारतीयों के पास देश की की संपत्ति का साथ फीसदी हिस्सा है, जबकि निचले पचास प्रतिशत लोगों के पास देश की संपत्ति का मात्र तीन प्रतिशत हिस्सा है. ऐसे में विरासत टैक्स समाज में पूंजी के फिर से बंटवारे की एक अच्छी कोशिश हो सकती है, यह एक स्वीकार्य व्यवस्था हो सकती है. जापान और अमेरिका में तो लागू भी है और दरें भी वहां ऊँची हैं, जहां लोगों को विरासत में मिली संपत्ति का तीस फीसदी या उससे ज्यादा भी टैक्स के रूप में देना पड़ता है. भारत में भी 1985 तक यह व्यवस्था थी लेकिन तब आज विरासत टैक्स की बात करने वाले या संपत्ति के पुनर्वितरण की बात करने वाले राहुल के पिता राजीव गांधी ने ही इस व्यवस्था को खत्म कर दिया था.
हालांकि कई सुपर रिच हैं जो ज्यादा टैक्स देना चाहते हैं, टैक्स नहीं दे पाए तो अन्यथा संपत्ति बाँट भी रहे हैं, बिल गेट्स है, वारेन बफेट हैं. इंडिया की बात करें तो यहाँ 110 अल्ट्रा हाई नेट वर्थ वाले लोगों में से सत्तर लगातार दान कर्ता बने हुए हैं ! क्यों ना #TaxMeNow सरीखा मूवमेंट मोमेंटम पकड़े !
भारत ने भी रईस लोगों पर टैक्स लगाने की कोशिशें की हैं लेकिन सफलता नहीं मिली. इंदिरा गांधी ने ग़रीबी हटाओ अभियान शुरू किया था जिसमें इनकम टैक्स की दरें 93.5 फीसदी से लेकर 97.5 फीसदी तक बढ़ाई गई थी और 3.5 फ़ीसदी वेल्थ टैक्स जैसे कदम भी उठाये गए थे. इसके साथ ही बैंकों, कोयला खदानों और आम बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया गया था. इन सभी कोशिशों के बाद भी 1947 से लेकर 1980 के बीच ग़रीबी में कमी नहीं आई जबकि इस अवधि में आबादी दोगुनी हो गई. इसीलिए कई एक्सपर्ट्स मानते हैं सरकार को लोगों की समृद्धि बढ़ाने पर फोकस करना चाहिए. सुपर रिच लोगों पर बहुत अधिक टैक्स लगाने से कोई फायदा नहीं मिलने वाला है.
हाल ही दुनिया के शीर्ष विकसित और विकासशील देशों के वित्त मंत्री अरबपतियों पर प्रभावी ढंग से कर लगाने के प्रस्ताव पर शुक्रवार को सहमत हुए हैं. तदनुसार घोषणा की गई है कि “कर संप्रभुता के प्रति पूर्ण सम्मान के साथ, हम सहयोगात्मक रूप से यह सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगे कि अरबपतियों पर प्रभावी रूप से कर लगाया जाए.”
हालांकि दो फीसदी के टारगेट का घोषणा पत्र में जिक्र नहीं हुआ है, लेकिन बावजूद अमेरिका के विरोध के घोषणा की गई है. जोर इस बात पर है कि "दर सामूहिक रूप से यूनिफार्म हो" , वर्ना तो टैक्स हेवन के रूप में एस्केप रूट ईज़ाद होते क्या ही देरी लगेगी ?
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