हमसे भूल हो गई हमका माफ़ी दई दो !

नेताओं में मानो माफी वीर कहलाने की होड़ मची है ! “वह” हतप्रभ है कि क्या हो गया है, क्या सब सावरकर को फॉलो करने लगे हैं ? "उसने" तो कहा था  "मैं सावरकर नहीं हूं, मैं गांधी हूं और गांधी माफी नहीं मांगता."  सही भी है गांधी जी  ने कभी "यंग इंडिया" के संपादक की हैसियत से एक छपे पत्र के लिए उच्च न्यायालय के आदेश पर माफ़ी मांगने से इंकार करते हुए सजा की याचना की थी ! परंतु "इस गांधी" ने तो न्यायालय से थोड़ी बहुत हीलाहवाली के पश्चात् बिना शर्त माफ़ी मांग ली थी ! सो क्या कहें कि "वह" गांधी नहीं है ? जहां तक बात सावरकर की माफ़ी की है तो सावरकर की अंग्रेजों से माफ़ी स्वार्थ परक थी, परंतु स्वार्थ देश का था वरना तो जिसने दस साल सेलुलर जेल की अमानवीय यातनायें सही हों, उसके विषय में ‘माफ़ीनामा’ या ‘दया याचिका' निरूपित  करना अनुचित ही है.    

दरअसल माफ़ी को सावरकर या गांधी से जोड़कर देखना ही गलत है ! "क्षमा वीरस्य भूषणम" का मूल ही है कि आपका अहंकार क्षमा मांगने से आपको रोकता है और तिरस्कार क्षमा देने में बाधक बनता है. जैसा भी हो, ममता बनर्जी ने सॉरी कह ही दिया बंगाल के निर्भया कांड के लिए ! कमोबेश उसी अंदाज में  महाराष्ट्र के सीएम अजित पवार ने शिवाजी महाराज की प्रतिमा गिरने के लिए प्रदेश के लोगों से माफ़ी मांगी ! दोनों ही माफ़ी स्वार्थ परक है. क्योंकि युतियाँ जो हैं मसलन ममता दीदी ने सामान्यीकरण करते हुए अमानवीय घटनाओं की शिकार हुई देश भर की तमाम महिलाओं से सॉरी कहा और कोलकाता की घटना के लिए तत्काल निवारण की मांग कर दी. इसी प्रकार अजित पवार ने इसलिए माफ़ी मांगी चूंकि एक साल के भीतर मूर्ति का इस तरह गिरने  सब के लिए सदमा है ! चूंकि बंगाल और महाराष्ट्र की राजनीति उबाल पर है, शायद इस शोऑफ से ठंड पड़ जाए ! जहां तक जनता का सवाल है, चूंकि जनार्दन कहलाती है क्षमा कर ही देती है, तिरस्कार भूल ही जाती है.  ऑन ए लाइटर नोट जनता भोले भंडारी जो है ! 

आमतौर पर नेता तभी माफ़ी मांगते हैं जब उन्हें ऐसा करने की सख्त राजनीतिक ज़रूरत महसूस होती है. हालांकि अपवाद भी हैं. कभी-कभी नेता तब माफ़ी मांगते हैं जब उनका स्वार्थ तुरंत दांव पर नहीं होता - जब ऐसा करने का एकमात्र स्पष्ट कारण वास्तविक पश्चाताप और खेद होता है. परंतु देश की सियासत में वास्तविक पश्चाताप और खेद देखने को कभी नहीं मिला !  अब देखिए ना यही ज़रूरत महसूस कर पीएम मोदी ने भी महाराष्ट्र दौरे के दरम्यान पालघर के एक कार्यक्रम में माफ़ी मांगी , “ शिवाजी की प्रतिमा गिरने पर सिर झुकाकर माफ़ी माँगता हूँ !”

जब हम किसी ऐसे व्यक्ति के साथ गलत करते हैं जिसे हम जानते हैं, चाहे अनजाने में ही क्यों न हो, तो हमसे आम तौर पर माफ़ी मांगने की अपेक्षा की जाती है. लेकिन जब हम नेता के रूप में काम कर रहे होते हैं, तो परिस्थितियाँ अलग होती हैं.  नेता न केवल अपने व्यवहार के लिए बल्कि अपने अनुयायियों के व्यवहार के लिए भी जिम्मेदार होते हैं, जिनकी संख्या सैकड़ों, हज़ारों या लाखों में हो सकती है.  तो, पहला सवाल यह है कि वास्तव में दोषी पक्ष कौन है? नुकसान की डिग्री भी एक मुद्दा है.  जब कोई नेता माफी माँगने के लिए बाध्य महसूस करता है, खासकर किसी ऐसे अपराध के लिए जिसमें अनुयायी शामिल थे, तो नुकसान संभवतः गंभीर, व्यापक और स्थायी था. एक नेता की माफी एक प्रदर्शन है जिसमें हर अभिव्यक्ति मायने रखती है और हर शब्द सार्वजनिक रिकॉर्ड का हिस्सा बन जाता है.  इसलिए नेताओं के लिए सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगना एक बड़ा जोखिम भरा कदम है: खुद के लिए, अपने अनुयायियों के लिए और जिस संगठन का वे प्रतिनिधित्व करते हैं उसके लिए.  माफ़ी मांगने से इनकार करना समझदारी भरा कदम हो सकता है या फिर यह आत्मघाती भी हो सकता है. इसके विपरीत, माफ़ी मांगने की तत्परता को मजबूत चरित्र या कमजोरी के संकेत के रूप में देखा जा सकता है. एक सफल माफ़ी दुश्मनी को व्यक्तिगत और संगठनात्मक जीत में बदल सकती है - जबकि एक माफ़ी जो बहुत कम, बहुत देर से या बहुत पारदर्शी रूप से सामरिक हो, व्यक्तिगत और संस्थागत बर्बादी ला सकती है. तो फिर क्या किया जाना चाहिए? नेता कैसे तय कर सकते हैं कि उन्हें सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगनी है या नहीं और कब मांगनी है?
सार्वजनिक रूप से  माफ़ी मांगने वाले नेताओं की संख्या में वृद्धि विशेष रूप से उल्लेखनीय रही है. माफ़ी मांगना एक ऐसी युक्ति है जिसका इस्तेमाल नेता अब अक्सर करते हैं, ताकि वे कम से कम लागत पर अपनी गलतियों को पीछे छोड़ सकें. नेता अक्सर ऐसे पापों के लिए भी माफ़ी मांगते हैं जिनसे उनका व्यक्तिगत रूप से कोई संबंध नहीं होता. और ऐसी माफियों में एक संकोच होता है, युति जुड़ी होती है.  कभी "उसने" चौरासी दंगों के लिए स्पष्टतया क्षमा के लिए पूछे जाने पर कहा था कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने सदन में अपनी और कांग्रेस पार्टी की स्थिति बहुत स्पष्ट कर दी थी. सोनिया गांधी ने भी ऐसा ही किया था. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने जो कहा, 'वह' उनका पूरी तरह से समर्थन करता है. इमरजेंसी के लिए भी 'उसने" यही कहा कि गलती थी जिसके लिए दादी को भी अफ़सोस था. कहने का मतलब स्वयं के मुखारबिंद से माफ़ी का शब्द भी निकला !         

यद्यपि नेताओं को अक्सर या हल्के फ़ुल्के ढंग से माफी नहीं मांगनी चाहिए. इसके लिए कोई अच्छा, मजबूत कारण होना चाहिए. किसी के 'सच्चे माफ़ीनामे' के लिए उसमें भूल चूक का एहसास , स्वीकार भाव, जिम्मेदारी का भाव, पछतावे का भाव और संकल्प शक्ति का होना आवश्यक है. परंतु कहीं न कहीं नेता मात खा जाते हैं, या कहें एस्केप कर जाते हैं. वजहें कई हैं कि वे या तो माफ़ी मांगते नहीं या फिर मांगते हैं तो आधी अधूरी राजनीतिक माफ़ी ! वे असुरक्षा से ग्रस्त होते हैं, उन्हें लगता है विपक्षी उन्हें कमज़ोर समझेगा और फायदा उठा लेगा ; जवाबदेही नहीं होती उनमें ; मान सम्मान की हानि का डर होता है, कभी कानूनी नतीजों का भय भी सता सकता है ; कभी ईगो हावी हो जाता है ; कभी साथी की आलोचना से बचने का भाव होता है ; बदनामी का डर भी सता सकता है !   

जबकि विचार किया जाए तो माफी नहीं मांगने के जितने खतरे हैं उसकी तुलना में माफी एक अद्भुत शब्द है. भारत से अमेरिका तक ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जब राष्ट्रपति से लेकर सामान्य राजनेता ने लोगों से माफी मांगी और जनता ने उस नेता का न सिर्फ माफ किया बल्कि अपने सिर-माथे भी बिठा लिया. दूर क्यों जाएं, इंदिरा जी की माफ़ी जनता ने स्वीकार की थी तभी तो एकबारगी हरा कर पुनः 1980 में सत्ता दे दी थी !  परंतु कहने के लिए सॉरी कह देना कहने भर के लिए होता है, रिस्क है महान कहलाएगा या फिर खारिज कर दिया जायेगा !   

स्पष्ट हुआ नेताओं की माफ़ी पोलिटिकल नैरेटिव का ही हिस्सा होती है.जनता कितना भाव देती है, निर्भर इस बात करता है कि प्रतिपक्षी विमर्श कहां टिकता है ! आजकल एक और ट्रेंड खूब है न्यायालय द्वारा माफ़ी की मांग ! सच्ची माफ़ी स्वतः स्फुरित क्रिया होती है, मांग की मोहताज नहीं होती ! हाँ, चूंकि न्यायालय की विजडम है तो वह यथोचित माफ़ी के लिए बाध्य कर देती है, उद्देश्य गलती का एहसास भर कराना होता है. हाल ही में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के चीफ को बाध्य किया गया और पहले राहुल गांधी को भी, यद्यपि उनके वरिष्ठतम नेता वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने एस्केप करने की पुरजोर कोशिशें की, बाध्य किया गया था ! जबकि सभी मय विद्वान न्यायाधीश जानते समझते हैं कि दोनों की माफियों में निहित तत्वों का पूरा अभाव है, न तो भूल चूक का एहसास है  , न ही स्वीकार भाव, जिम्मेदारी का भाव, पछतावे का भाव है और न ही संकल्प शक्ति है. दोनों ही पर ईगो सवार था और माफ़ी मांगी सिर्फ और सिर्फ क़ानून के डंडे के भय से !   

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Prakash Jain

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