पॉलिटिक्स में तो चुनिंदा होना शगल है, परंतु न्यायालय क्यों चुनिंदा उद्धरण को तवज्जो देने लगी है ?

बिल्कुल हालिया चुनिंदा हुई है देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह के "कहे" से राजनीतिक सुविधानुसार कुछ शब्दों के एक वाक्य को उठाकर ! कहावत है अर्ध सत्य झूठ से ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि खड़गे जी सरीखे स्थापित दलित नेता भी ऐसी ही प्रतिक्रिया दे रहे हैं जबकि वे भलीभांक्ति समझते हैं क्या कहा गया था, किस संदर्भ में कहा गया था और क्यों कहा गया था ! 

तथ्यों को भ्रामक बनाने की महारत ही तो राजनीति है, जिसकी जितनी महारत, वह उतना बड़ा महारथी नेता है आज यदि भ्रमित धारणा घर करा दी जाए जनमानस में ! प्रयास तो यही है प्रतिपक्ष का, क्योंकि अमित शाह को घेर लिया तो बात बन जाए ना ! तभी तो शाह ख़ुद प्रेस कांफ्रेंस कर बैठे यह बताने के किए कि कांग्रेस  उनके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश कर रही है और तथ्यों को असत्य के कपड़े पहना कर समाज में भ्रांति फैलाने का प्रयास कर रही है. कह तो वे सही रहे हैं, भ्रम तोड़ पाएंगे क्या ? क्योंकि चुनिंदा उद्धरण तो बीजेपी भी करती रही है और हमेशा ताक में भी रहती है कि मौका हाथ आए ! कहने का मतलब होड़ सी है, जो जब जीता वो सिकंदर ! हालाँकि अमित शाह ने जिस लहजे में कहा, वह सही टेस्ट में तो कदापि नहीं था ! लेकिन इसे सिद्ध करने की कूबत तो कांग्रेस में है ही नहीं ! वो तो यही कर सकते थे कि शाह के दो ढाई मिनट के डिलिबरेशन में से कुछ सेकेंड्स की चुनिंदा क्लिप डॉक्टर्ड कर ली अपनी राजनीति के लिए ! फिर भी कटु सत्य तो यही है कि हर नेता, पार्टी कोई भी हो, हर बात में, हर घटना पर, हर प्रश्न पर, फिट ना भी होते हों तो भी अंबेडकर जी को फिट करा देता है ! इस लिहाज़ से कह सकते हैं राजनीतिक फैशन है आजकल अंबेडकर जी को बारंबार याद  करना ! हाँ, आपत्ति है और सबों को भी सिर्फ यही होनी भी चाहिए, जब शाह अन्यथा सीख देते हैं कि इतनी बार भगवान का नाम ले लेते तो स्वर्ग पहुँच जाते ! भगवान का नाम इतनी बार ही क्यों, रोज रोज लेने वाले कितने स्वर्ग पहुंचे, कोई डाटा है या ? कटु सच्चाई तो यही है कि बारंबार भगवान का नाम लेने वालों में अधिकांश बतौर फैशन दिखावा ही करते हैं ! और फिर संविधान की दुहाई क्यों ? जब जो सत्तासीन होता है, अपने एजेंडा के लिए संविधान में बदलाव करता हैं, भुगतती जनता ही है !        

खैर! हम क्यों राजनीति में उलझ गए है ? विषयांतर जो हो गया ! बात न्यायालय की करनी है ! कुछ दिन पहले ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज शेखर कुमार यादव ने हिंदू दक्षिणपंथी संगठन विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के कानूनी प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर व्याख्यान दिया, जिसमें से  चुनिंदा उद्धरण उठाकर सांसद वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अन्यान्य सांसदों के साथ मिलकर माननीय न्यायमूर्ति की बर्खास्तगी के लिए महाभियोग प्रस्ताव दे दिया. यहाँ तक तो "जो हुआ सो हुआ " की तर्ज पर कहा जा सकता है पॉलिटिक्स हो रही है. परंतु शीर्ष न्यायालय की क्या मजबूरी थी कि जस्टिस साहब की पेशी ले ली और जैसा सुना है उन्हें खरी खोटी भी सुना दी ?

क्या न्यायाधीश अपनी शख्सियत की तिलांजलि दे दे ? सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने तो जस्टिस यादव के आचरण की जांच की ही मांग कर दी ! उनका निज आचरण सर्टिफाइड है क्या ?  जब देखो तब तो वे मुंह की खाते रहते हैं शीर्ष अदालत में ! जस्टिस यादव  बीएचपी के कार्यक्रम में गए, शीर्ष न्यायालय की न्यायमूर्तियों को ऐतराज क्यों ? ना तो संवैधानिक रोक है और ना ही कहीं कोई दिशा निर्देश है ! माननीय न्यायाधीश को नैतिकता का पाठ बताया जा रहा है क्योंकि उनके आख्यान पर मुस्लिमों की भौहें जो तन रही है ! योर ऑनर ने कहा, "मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह हिंदुस्तान है, यह देश हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुसार काम करेगा. कानून तो भैया बहुसंख्यक से ही चलता है." क्या गलत है इसमें?  लोकतंत्र का मुख्य आधार ही बहुमत है माननीय न्यायाधीश यादव जी ने लोकतंत्र के इसी मुख्य आधार की विशेषता को तार्किक सत्य के रूप में व्यक्त किया है. जब कभी तीन या चार या संवैधानिक पीठ ( 5, 7 या 9 जजों की) फैसला सुनाती है, वह क्या होता है ? मेजोरिटी प्रेवेल करती है या नहीं माइनॉरिटी पर ! इस बात को मानने से कोई गुरेज होना ही नहीं चाहिये कि भारत के बहुसंख्यक ही इस देश के लोकतंत्र के मुख्य आधार और प्राण हैं. 

माननीय न्यायाधीश पर महाभियोग लगाने वालों की मंशा ही संदेह के घेरे में हैं, वे महान भारत देश और उसके समृद्ध होते लोकतंत्र को स्वार्थ की प्रतिपूर्ति के लिए अपने नियंत्रण में लेना चाहते हैं और उनका टूल है मुख्य अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकतर लोगों की धर्मान्धता (कठमुल्लापन) !  

जज साहब ने आगे कहा, "जब हमारे यहां बच्चा पैदा होता है, बचपन काल से ही उसको ईश्वर की ओर बढ़ाया जाता है, वेद मंत्र पढ़े जाते हैं, अहिंसा के बारे में चीजें बताई जाती हैं. लेकिन आपके यहां तो बचपन से ही बच्चे के सामने रखकर पशुओं का वध किया जाता है तो आप कैसे अपेक्षा करते हैं कि सहिष्णु होगा वो, उदार होगा?"   उनका "कहा" गलत तो नहीं है और फिर बतौर न्यायमूर्ति तो उन्होंने यह बात कही नहीं है ! क्यों भूल जाते हैं "पंच परमेश्वर" की अवधारणा को ? क्या न्यायमूर्ति के रूप में अलगू या जुम्मन ने अपने अपने झुकाव को, हित को ताक पर रखकर न्याय नहीं किया था ? 

विहिप के इस कार्यक्रम में 'वक्फ बोर्ड अधिनियम', 'धर्मांतरण-कारण एवं निवारण' और 'समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता' जैसे विषय थे, जिन पर अलग-अलग लोगों ने अपनी बात रखी.  जस्टिस शेखर यादव ने 'समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता' विषय पर यह भी कहा  कि देश एक है, संविधान एक है तो कानून एक क्यों नहीं है? "बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा" उनका कहा हुआ इसी संदर्भ में था. आगे जब वे कहते हैं कि 'कठमुल्ला' 'शब्द' गलत है, लेकिन कहने में गुरेज नहीं है, क्योंकि वे देश के लिए घातक हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है.  कुछ गलत तो नहीं है ! जिस प्रकार हिंदुओं में सारे के सारे गुरु, वाचक, प्रचारक आदि धर्मान्ध नहीं है, उसी प्रकार  सारे के सारे मुस्लिम धर्मगुरु, मौलवी भी धर्मांध नहीं है. और कठमुल्ला पर्यायवाची है धर्मांध का ! किसी धर्मांध हिंदू धर्म गुरु, प्रचारक या वाचक को पाखंडी कह दो, क्या संज्ञान लिया जाएगा ? हाँ, मुस्लिम धर्मांध मौलवी को कठमुल्ला कह दिया तो आपत्तिजनक हो गया !    
फिर जस्टिस यादव ने जो कुछ भी कहा, संदर्भ रहित तो नहीं कहा ! ना ही सारे के सारे मुसलमानों को कठमुल्ला कह दिया ! बहुसंख्यक की बात उन्होंने समान नागरिक संहिता के संदर्भ में कही थी ना कि किसी अपराधी को बहुसंख्यक समाज से होने की बिना पर क्लीन चिट दे दी थी ! 
चूंकि पेशी हुई, जस्टिस ने भाषण को लेकर रुख स्पष्ट किया कि उनके भाषण को पूरे संदर्भ में नहीं समझा गया.  भाषण के कुछ हिस्सों को उठाकर विवाद पैदा किया गया है. सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की ओर से अब इस मामले में फैसला दिया जाएगा और निश्चित ही इस पर हर किसी की नजर रहेगी. परंतु आश्चर्य हुआ जब पूर्व सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने लाइव लॉ से बातचीत में कहा, 'यह सच है कि मैंने शेखर यादव के साथ-साथ कई अन्य नामों का भी विरोध किया था जिसका कारण नेपोटिज्म, संबंधों और अन्य पूर्वाग्रहों से जुड़ा हुआ था.' उन्होंने आगे कहा कि किसी जज का रिश्तेदार होना अपने आप ही अयोग्यता का कारण नहीं हैं. पूर्व सीजेआई ने कहा मौजूदा जजों को हमेशा ध्यान रखना चाहिए के वे क्या बोल रहे हैं, भले ही वे अदालत के अंदर हों या बाहर. उनके बयानों से ऐसा संदेश नहीं जाना चाहिए जिससे न्यायपालिका के बारे में ये धारणा बने कि वह पक्षपाती है. पूर्व जस्टिस भूल गए कि पोलिटिकल क्लास ने तो उनको भी नहीं बख्शा ! यदि वे पक्षपाती नहीं थे तो यही बात जस्टिस यादव के लिए भी तो लागू होनी चाहिए ना !  फिर न्यायालयों में बहस के दौरान जजों की टिप्पणियों को भी संदर्भ से इतर अलग कर सुविधानुसार अक्सर क्वोट कर अर्थ का अनर्थ कर दिया जाता है !

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Prakash Jain

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