Management is about manipulation का नायाब उदाहरण है मीडिया का हैडलाइन मैनेजमेंट !

कभी निष्पक्षता और शुचिता पत्रकारिता के आदर्श हुआ करते होंगे, आज तो जोड़ तोड़ की रिपोर्टिंग ही पत्रकारिता है. न्यूज़ एज़ सच से टीआरपी जो नहीं मिलती ! अक्सर हेडलाइन चौंकाती है, यदि सपाट न होकर  टेढ़ी मेढ़ी हो तो ! जस्ट एक उदाहरण है, पिछले दिनों राजस्थान में न्यूज़ आई कि 'लू से छह लोग मरे'. इसे एक मीडिया ने हेड लाइन दी, ' लू ज्यादा नहीं थी तो कैसे छह लोग मरे ?' खबर को खबर नहीं रहने देना और भीतर की खबर को निकाल बाहर करने के नाम पर झूठी और डिस्टॉर्टेड रिपोर्टिंग आम हो चली है.  

भारत जैसे देश में, जहाँ आजादी और अत्याचार का सह-अस्तित्व है और जहाँ जनतान्त्रिक जीवन-मूल्य दाँव पर लगे हुए हैं, वहाँ प्रेस और प्रेस की खबरें बहुत मूल्यवान हैं. बस, इसी स्थिति को एक्सप्लॉइट किया जा रहा है और मीडिया अपने  हानि लाभ का हिसाब करके निजी निष्कर्ष का मुलम्मा घटना पर, कार्यवाही पर चढ़ा देती है, भले ही अर्थ का अनर्थ हो जाए, आम लोग संबंधित पार्टियों के लिए गलत धारणा ही बना लें ! 

दरअसल आज सक्षम मीडिया वही है जिसकी रिपोर्टिंग बिना कहे ही वह कह देती है, जिसे ऑडियंस या रीडर सुन पढ़ लेता है. कहने का मतलब जिसने जितना मजबूत एस्केप रूट रखा, वह उतना स्थापित होता चला गया जॉर्नलिस्ट/जर्नलिज्म के तौर पर, एंकर के तौर पर, विश्लेषक के तौर पर ! वो कहावत है ना सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ! सो यूँ प्रेजेंट कर दो बात को अपनी रिपोर्ट में कि आग लग जाए, सनसनीखेज लगे और दोष भी न लगे ! यही होती है मीडिया की मासूमियत कि 'ऐसा मैंने तो नहीं कहा था, वही कहा जो तुमने कहा !' 
व्यक्तिगत स्तर पर अनेकों नामचीनों को भुगतना पड़ा है मीडिया की इन कारस्तानियों को ! लोग न्यायालय की शरण में जाते हैं जहाँ अधिकांश मामलों में मीडिया को फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन/स्पीच वाला एस्केप मिल ही जाता है जिसका तकनीकी रूट पहले से ही मीडिया ने निकाल जो रखा था ! हाँ, जहाँ इस बाबत मीडिया की विशेषज्ञता चूकी भी, हद से हद उसे कंटेंट डाउन करने के साथ  माफ़ी मांगने भर के लिए कह दिया जाता है और मामला रफा दफा हो जाता है ! मान हानि के दावों का यही हश्र होता रहा है. 

बात करें पोस्ट फ्रीडम काल की, नेहरू काल की,  तो तब भी ऐसी पत्रकारिता होती थी. तब सिर्फ प्रिंट मीडिया हुआ करता था और ऐसी पत्रकारिता पीत पत्रकारिता कहलाती थी. हालांकि पीत पत्रकारिता का इतिहास सदियों पुराना है, जो  उन्नीसवीं सदी के आखिर में खूब प्रचलित भी हुई थी. परंतु जो भी थे पीले, वे हेय दृष्टि से ही देखे जाते थे. आज येलो वाइट का फर्क ख़त्म इस मायने में है कि सारा कुछ पीला ही है.   

अनेकों उदाहरण मिल जायेंगे जब मीडिया बाध्य हुई रिपोर्ट वापस लेने के लिए, संबंधित कंटेंट (वीडियो या राइट अप ) भी हटाना पड़ा, माफीनामा भी देना पड़ा. बिल्कुल हालिया उदाहरण बीजेपी की महिला प्रवक्ता शाजिया इल्मी का है, जिनकी याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने पत्रकार राजदीप सरदेसाई और समाचार नेटवर्क इंडिया टुडे को आदेश दिया कि वे सरदेसाई द्वारा सोशल मीडिया पर अपलोड किए गए एक वीडियो को हटा दें, जिसमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नेता शाजिया इल्मी कथित तौर पर इंडिया टुडे के एक वीडियो पत्रकार को "गाली" दे रही हैं. ऐसा नहीं है कि घटना नहीं हुई थी, परंतु जिस प्रकार सरदेसाई ने एक पर्सनल मामले की सोशल मीडिया पर विकृत रिपोर्टिंग की, न्यायालय ने पहली नजर में इसे शाजिया की निजता का उल्लंघन माना. शाजिया का आरोप तो वीडियो एडिट कर डालने का भी है, जिस पर न्यायालय निश्चित ही फैसला लेगी ; परंतु अपनी वक्र वाक्पटुता से डिस्टॉर्टेड फैक्ट्स तो रखे ही थे नामचीन पत्रकार महोदय ने ! वैसे सरदेसाई को लेकर विवाद होते रहे हैं, माफ़ी दर माफ़ी मांगते हुए वे बच निकलते रहे हैं.  यदि पोलिटिकल शब्दावली में कहें कि वे "माफीवीर" हैं, तो अतिशयोक्ति कदापि नहीं होगी. 
सीरियस बात करें तो धर्मसंकट पैदा हुआ न्याय व्यवस्था के लिए जब इन मीडिया वालों ने न्याय मंदिर में न्याय तक पहुँचने के लिए चल रही सुनवाई और कोर्ट कार्यवाही के दौरान परस्पर हो रही बातचीत को हेडलाइन मैनेजमेंट की टूल किट में शामिल कर लिया. परंतु  पिछले दिनों ही शीर्ष न्यायालय ने मीडिया को न्यायिक कार्यवाही के दौरान टिप्पणियों की रिपोर्टिंग करने से रोकने के लिये भारतीय चुनाव आयोग (ECI) द्वारा दायर की गई याचिका को खारिज कर दिया था.सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, अदालती सुनवाई का मीडिया कवरेज़ प्रेस की स्वतंत्रता का हिस्सा है, इसका नागरिकों के सूचना के अधिकार तथा न्यायपालिका की जवाबदेही पर भी असर पड़ता है. और इसलिए मीडिया को अदालती सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों द्वारा की गई चर्चाओं और मौखिक टिप्पणियों की रिपोर्टिंग से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है. लगे हाथों उच्चतम न्यायालय ने  न्यायाधीशों को खुली अदालत में बिना सोचे-समझे  टिप्पणी करने में सावधानी बरतने की एक तरह से हिदायत भी दी, क्योंकि इनकी गलत व्याख्या अतिसंवेदनशील हो सकती है.  
ऐसा ही धर्मसंकट हाल ही पड़ा गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष ! हालांकि गुजरात हाईकोर्ट ने न्यायालय की कार्यवाही को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के लिए समाचार पत्रों, टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस के संपादकों को नोटिस जारी किया है. न्यायालय ने पाया कि समाचार पत्रों की रिपोर्टों ने गलत धारणा दी कि सुनवाई के दौरान पीठ द्वारा की गयी टिप्पणियाँ उसकी अंतिम राय थीं.

चीफ जस्टिस सुनीता अग्रवाल और जस्टिस प्रणव त्रिवेदी की खंडपीठ गुजरात माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा अधिनियम में संशोधन को चुनौती देने वाले विभिन्न भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यक स्कूलों द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी. याचिकाकर्ताओं की ओर से उपस्थित सीनियर एडवोकेट के साथ विचार-विमर्श के दौरान, न्यायालय द्वारा कुछ टिप्पणियां की गई, जिन्हें टाइम्स ऑफ इंडिया, अहमदाबाद के दिनांक 13.08.2024 के समाचार पत्र की रिपोर्ट में शीर्षक के साथ छापा गया, “राज्य शिक्षा में उत्कृष्टता के लिए अल्पसंख्यक स्कूलों को विनियमित कर सकता है: हाईकोर्ट” और साथ ही सब-टाइटल भी दिया गया, “राष्ट्रीय हितों में अधिकार छोड़ने होंगे।” इसी प्रकार का समाचार इंडियन एक्सप्रेस में स्थानीय पृष्ठ पर शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ, “सहायता प्राप्त करने वाले अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक विद्यालयों को मानदंडों का पालन करना चाहिए: गुजरात हाईकोर्ट”

न्यायमूर्तियों को आपत्ति इसलिए है कि कार्यवाही के दौरान जो भी टिप्पणियां की, उन्हें इस तरह से छापा गया है जैसे कि वह आदेश हो. यूट्यूब के माध्यम से प्रसारित होने वाली कार्यवाही का उपयोग करके यही हो रहा है. जबकि न्यायालय में जजों की टिप्पणियां अक्सर डिफेक्टिव या कहें तो कंटामिनटेड हो सकती है और ऐसा निरर्थक ही होता है, हालांकि पर्पस होता है निर्णय तक पहुँचने का.  कुल मिलाकर यह खुली चर्चा का हिस्सा है और फिर समाचार रिपोर्ट इस प्रकार आती है मानो जजों ने कोई राय बना ली हो. बात यूट्यूब की हुई तो आजकल स्वतंत्र पत्रकारों (पहले परतंत्र थे, चूँकि  किसी न किसी मीडिया हाउस में थे) के खूब जलवे हैं. बेहिचक स्वतंत्र विचारधारा का दम भरते हुए खूब अनर्गल बोलते हैं, किसी भी हद तक चले जाते हैं, "राहुल के 'करीब' रहेंगी प्रणीति शिंदे" और साथ में उप शीर्षक भी है, 'संसद में कंगना की नींद उड़ाने का मिला इनाम !'  जबकि बात सिर्फ इतनी थी कि बजट पर चर्चा में भाग लेते हुए प्रणीति ने अच्छा बोला, कंगना के 'कहे' को भी बखूबी काउंटर किया और इस परफॉरमेंस के लिए राहुल गाँधी ने हाथ मिलाकर उनकी एक तरह से हौसला अफजाई की थी. दूसरा चैनल एक कदम और आगे निकल गया, "महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के बाद शादी करने जा रहे राहुल गाँधी ? प्रियंका ले फाइनल कर ली दुल्हन ?" कहने का मतलब कुछ भी गॉसिप कर दो पत्रकारिता के नाम पर ! 

दूसरी तरफ विडंबना ही है कि कोर्ट के निर्णय अधिकतर रिपोर्ट ही नहीं होते. क्यों ? तब मसाला जो नहीं डाल  सकते,  क्लियर कट अवमानना झेलनी जो पड़ जायेगी ! कहने का मतलब no escape route is available !

ज़रूरत इस फ्रीडम ऑफ़ स्पीच/फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन को निष्पक्षता से रेग्युलेट करने की है. निष्पक्षता की कसौटी पर हो रही खूब आलोचना की वजह से ही सरकार को ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज रेग्युलेशन बिल को होल्ड करना पड़ा है. परंतु दलगत राजनीति के वश बिल की आलोचना भी तो ठीक नहीं है. जुडिशरी को ही इस बाबत दिशा निर्देश जारी कर देने चाहिए ताकि किसी भी विषय पर, किसी के लिए भी, गलत सार्वजनिक धारणा तो न बनें !                    

#SayNoToDistortedMeidaReporting

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Prakash Jain

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