और 'महाराज' स्ट्रीम हो रही है वो भी अनकट !

और हुई तो जुम्मे के दिन ही हुई. गुजरात उच्च न्यायालय ने जुम्मे से जुम्मे का एक सप्ताह प्रमोशन जो कर दिया फिल्म का ! अब तो लोग चला कर फिल्म देखेंगे, वर्ना एक सपाट सी फिल्म को चुनिंदा ही व्यूअर्स मिलते ! क्या वह (एक आलोचक) सही कह रहा है NETFLIX और यश राज फिल्म को पता था कि फिल्म बगैर अदालती जिरह के स्ट्रीम नहीं होगी और इसलिए वे चुप्पी साध गए तमाम टूल्स के इस्तेमाल किये जाने पर मसलन प्रमोशन, टीज़र, ट्रेलर, इंटरव्यू आदि ? आख़िर किसी फिल्म या कंटेंट का “ बैन होकर बाहर निकल आने के लिए हुई अदालती जिरह” से बेहतर क्या प्रमोशन हो सकता है ? 

थैंक्स टू द कोर्ट ऑफ़ लॉ, फिल्म "महाराज" पर इस कदर चर्चा हुई है और हमने भी की है कि कुछ बचा रह नहीं गया है और कुछ कहने को ! अब चूंकि फिल्म स्ट्रीम हो रही है, क्रिटिकल रिव्यू तो बनता ही है. मॉरल ऑफ़ द फिल्म फिल्म के ही एक संवाद में है - "सवाल ना पूछे वो भक्त अधूरा और जवाब ना दे सके वो धर्म ; जो हक़ का है ना मिले तो लड़ो उसके लिए !"  सौरभ शाह की इसी नाम की गुजराती पुस्तक पर आधारित फिल्म पराधीन भारत के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण अदालती लड़ाई '1862 के महाराज मानहानि मामले' तक पहुँचने तक की घटनाओं को फॉलो करते हुए एक सिनेमा प्रस्तुत करती है.

फिर भी अति संक्षेप में दोहराते चलें कि 25 जनवरी 1862 की तारीख भारतीय कानून के इतिहास में बहुत मायने रखती है. वो बात अलग है कि इस दिन जो हुआ, हमने उसे धर्म, आस्था के चलते दबा के रखा, या फिर बस उसे ब्रिटिश इतिहास के पन्नों में दबाकर रख दिया. यदुनाथ महाराज ने एक लड़के के खिलाफ केस किया था. मानहानि का केस किया. आरोप था कि उस लड़के ने महाराज और उनके भक्तों की छवि खराब करने की कोशिश की है. धर्म को बदनाम करने की कोशिश की है. उस तारीख पर बॉम्बे कोर्ट (तब बम्बई सुप्रीम कोर्ट कहलाता था) के बाहर बड़ी तादाद में लोग जमा हुए थे. कुछ महाराज के भक्त थे. कुछ बस देखने आए थे कि आज क्या होने वाला है. और कुछ बस उस लड़के की हिम्मत के साक्षी बनना चाहते थे. 

तो सिनेमा कैसा रहा ? पहले एक्टर्स के लिहाज से बात कर लें क्योंकि आमिर खान के बेटे की फिल्म है, कह कह कर “बार” ऊँचा जो कर दिया गया है. उस लिहाज से जुनैद फ्लॉप ही रहे क्योंकि अभिनय के मामले में वे आमिर खान के पासंग भी नहीं ठहरते, वर्ना तो वे सेल्फमेड कहे जाने चाहिए, विगत सात सालों से थियेटर जो कर रहे हैं !  रोल में वे सामान भावों में ही नजर आते हैं, किंचित भी उतारचढाव नहीं ! रह रह कर सिनेमा के कम एक डॉक्यूमेंट्री के पात्र लगने लगते हैं. हाँ , गुजराती ऑउटफिट में हलकी मूंछों वाला उनका चेहरा ज़रूर लुभाता है जो हर सीन परफ़ॉर्म करने में मानो सारा जोर लगा दे रहा है. वैसे ये उनकी पहली ही फिल्म है और अभी उनमें सुधार का काफी स्कोप है. फिर इधर-उधर कुछ एक सीन में ये दिखता है कि वो एक्ट तो कर सकते हैं. बस, उन्हें कमियां जल्दी दूर करनी होंगी, जिसके मौके उन्हें मिलेंगे, आमिर खान के बेटे जो है. उस लिहाज़ से प्लस पॉइंट है उनका !  

अन्य कलाकारों और टेक्निकल पक्षों की बात करें उससे पहले रचनात्मकता की बात कर लें ! सभी मान रहे हैं, यहाँ तक की टीम महाराज को भी इल्म है क्रिएटिविटी कहीं कमतर रह गई ! एक पीरियड ड्रामा उम्दा बन पाता, बशर्ते थोड़ी रचनात्मक स्वतंत्रता ली होती निर्माता ने ! नहीं ली गई शायद डर था कि धर्म की आड़ में रिवाजों की अतिरंजित बखिया उधेड़ना भारी पड़ जाएगा ! 

वन लाइनर तो यही है कि जुनैद खान की पहली फिल्म अच्छी है, पर उबाऊ है ! उबाऊ है व्यूअर्स के नजरिये से जिन्हें पीरियड ड्रामा तो चाहिए लेकिन भरपूर नाटकीयता के साथ ! कहने का मतलब 'महाराज'  इन्वेस्टिंग होती ,यदि इसका कलेवर अति नाटकीय "आश्रम" जैसा नहीं तो कम से कम "एक बंदा काफी है" सरीखा तो होना ही चाहिए था. जबकि “महाराज” एक सपाट सिनेमा सा रह गया है.  

फिर अच्छा ख़ासा डिस्क्लेमर जब दे ही दिया है तो क्रिएटिव लिबर्टी लेनी बनती थी ; लेकर ऐसी एक्सोटिक(exotic) फिल्म बनाते जिसमें असलियत सामने आने पर लोगों में आक्रोश उपजता दिखाया होता तो चलचित्र परदे पर ठंडा नजर नहीं आता. यहाँ तक कि कोर्ट रूम ड्रामा में दलीलें और जिरह तो है लेकिन कोई रोमांच या तनाव क्यों पैदा नहीं हुआ ? ठीक है, "चरण सेवा" के दीदार वाले सीन EROTIC नहीं रखे गए, परंतु  अन्यथा नाटकीय लिबर्टी तो ली ही जा सकती थी. 

निःसंदेह सिद्धार्थ पी मल्होत्रा ने एक जोरदार कहानी को चुना है. जिसमें धर्म और अंधविश्वास के नाम पर लड़कियों को ठगे जाने की कहानी है ,परंतु माहौल नहीं बना पाए. म्यूजिक अच्छा है तराने भी खूब हैं और संवाद भी बेहतरीन है और आज भी प्रासंगिक है मसलन 'रिवाजों का पालन कर रही थी तुम धर्म का नहीं .......... धर्म से ज़्यादा हिंसक वैसे भी कोई युद्ध नहीं है ....... श्रद्धा पर सवाल नहीं लेकिन अंध श्रद्धा पर तो कर सकता हूँ ना ......' विषय को भी प्रासंगिक रखने की कोशिश संवादों के माध्यम से की गई है, 'समाज सुधार के तीन हिस्से होते है पहला इंसान को अपनी गलती का एहसास दिलाना यानि आत्मबोध, फिर उस गलती को सुधारना यानि सुधार और अंत में उसे समाज में वापस शामिल करना यानी पुनर्वास !'             

अन्य कलाकारों में करसनदास की मंगेतर किशोरी के रूप में शालिनी पांडे और उनकी आत्मविश्वासी और मुखर प्रशंसक के रूप में शरवरी वाघ भी शामिल हैं. पांडे की भूमिका भले ही लंबी न हो, लेकिन यह महत्वपूर्ण है और अभिनेत्री ने इस पहलू में अपना पूरा ज़ोर लगाया है ; हालांकि, वाघ असली आकर्षण हैं. जैसे ही वह स्क्रीन पर आती हैं, फिल्म जीवंत हो जाती है.

अंत में बस इतना ही कि फिल्म इसलिए भी देखी जानी चाहिए चूंकि 1860 के दशक के एक विवादास्पद मामले पर आधारित एक फिल्म 2024 में खुद विवाद में जो आ गई. एक और बात, कम से कम अदालतें अब किसी भी फिल्म या कंटेंट पर बिना देखे तो रोक नहीं लगाएगी !  और एक बात, श्रीकृष्ण भक्त वल्लभाचार्य अनुयायी हों , या फिर कोई भी सम्प्रदाय, ऐसे पाखंडी महाराजों की किंवदंतियाँ इतिहास के पन्नों से बाहर आएं, लोग देखें , जानें और समझें तो हर्ज क्यों ? धर्म की हानि तो उन पाखंडियों ने की थी ! उनके बारे में जागरूकता जगाने से लोग सतत सजग सचेत रहेंगे और हर धारणी का भला होगा, चूंकि धर्म वो जो धारण योग्य हों !              

Write a comment ...

Prakash Jain

Show your support

As a passionate exclusive scrollstack writer, if you read and find my work with difference, please support me.

Recent Supporters

Write a comment ...