अजब किस्से के नाम पर कहानी है ही नहीं ! पूरी फिल्म अंत तक निहारते रहे कि बस कालीन भैया एक नए अवतार में आएंगे और महफ़िल जमा देंगे। वे भी आये , उन्हें भी तक लिया , फिल्म पूरी हो गयी लेकिन किस्सा समझ नहीं आया। एक बात जरूर समझ आ गयी कि क्यों निर्माता फिल्म को सिनेमाघरों में दिखाने की हिम्मत जुटा पाए जबकि कुछेक फिल्म फ़ेस्टिवल में शिरकत जरूर करवा दी ! आखिर अंधी गली और कालपुरुष फेम प्रबुद्ध फिल्मकार बुद्धदेव दासगुप्ता का नाम जो था।
लीक से हटकर है और कलात्मकता की दुहाई देकर बेशक क्रटिक्स अच्छे रिव्यू दे दें लेकिन पॉपुलर रिव्यू डेड अगेंस्ट ही होंगे। खैर ! ओटीटी प्लेटफार्म इरोस नाउ पर अब उतारी गयी है। शायद समलैंगिक रिश्ते की स्निफ्फिंग का एक प्रसंग, पूर्व प्रेमी कुंवारा अनवर (मुस्लिम ) और शादीशुदा आयशा (हिंदू ) का किसिंग वाला प्रसंग और पंकज त्रिपाठी के मुख से निकला एकमेव मास्टरपीस डायलाग में ओटीटी ने संभावनाएं देख ली हों ! और यकीन मानिये इसी एक डायलॉग ने इस कोरोना क्राइसिस में इस नज्म को गुनगुनवा दिया - अल्लाह मुझे दर्द के काबिल बना दिया, तूफान को ही कश्ती का साहिल बना दिया ; बेचैनियां समेट के सारे जहां की, जब कुछ ना बन सका तो मेरा दिल बना दिया !
संवाद लिखना नहीं चाहते थे ताकि उसी लालच में कम से कम पूरी फिल्म तो आप देख लेते क्योंकि हमरा तुमरा सबका पंकजवा अंत में ही अवतरित होता है ! फिर ऑन द टॉप ख्याल आया व्यूअर्स का समय और मन दोनों ही बचा लें तो पढ़ लीजिये - जिसकी फॅमिली हो , पत्नी बच्चे हों , वो घर छोड़कर चला जाय तो लोग ऐसा ही क्यों सोचते हैं कि दूसरी औरत होगी, कुछ और बात भी तो हो सकती हैं ! हालाँकि अक्षरशः नहीं हैं , फिर भी बिलकुल करीब है।
ठीक है विधा में प्रयोग होने चाहिए लेकिन फिल्म एक ऐसी विधा है जिसका व्यूअर्स से सरोकार है ; फिर भले ही एक क्लास की ही पसंदीदा क्यों ना कहलाएं ! लेकिन फिल्म की आत्मा कहानी होती है और जब वही नदारद हो तो वो एलिट क्लास क्या दृश्यों को, हेरिटेज कोलकाता की गलियों को और अन्य फोटोग्राफी को बिना किसी कहानी के स्निफर के तानेबाने में देखें ?
फिल्म स्लो मोशन में प्रयोग के लिए अच्छी लग सकती हैं , बशर्ते व्यूअर्स कनेक्ट होता है और वह तभी होता है जब एक स्टोरीलाइन भी हो मसलन सत्तर के दशक की बासु भट्टाचार्य की आविष्कार सरीखी कहानी जिसमें राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर जैसे उस समय के उम्दा कलाकार थे ! अनवर का अजब किस्सा में अदाकारों का तो जमावड़ा है लेकिन कहानी नहीं हैं मसलन नवाजुद्दीन (मोहम्मद ) , पंकज (अमोल ) , निहारिका सिंह (आयशा ) आदि !
लेकिन बिना कहानी के इस फिल्म के साथ ट्रैवल करना शायद उतनी बोर ना करें उन व्यूअर्स को जो एक फिल्म को टुकड़ों में देखते हैं बिना किसी स्टोरी के चूँकि दासगुप्ता साहब ने अच्छी डार्क कॉमेडी पेश की है, अच्छे प्रसंग और ऑउटफिट क्रिएट किये हैं खासकर वह तो दिल को छू सा जाता है जब मोहम्मद अपने कुत्ते के साथ कोलकाता की सड़क पर आधी रात को आवारागर्दी कर रहा है और कुछ हैरान परेशान लोगों से पूछता है क्यों जगे हुए हो ?
पूरी फिल्म में कैमरा ज्यादातर नवाज पर ही केंद्रित है और अपनी यादों को कुरेदते हुए मोहम्मद अनवर के जटिल किरदार में उन्होंने जान डाल दी है लेकिन फिल्म का अजब डिस्क्रिप्शन उनकी मेहनत पर पानी फेर देता हैं। अनवर की हिन्दू प्रेमिका आयशा , जो अब शादीशुदा है , का स्क्रीन पर आना ना आने के ही बराबर है और अभी तक सोच रहा हूँ वो अनवर के ख्यालों में ही आयी थी या हकीकत थी। कालीन भैया भी कुल चार मिनट के लिए आये थे और वही बात इस आने में भी क्या आना था ? बुद्धदेव दा, इसी नाम से ही हमारे बंगाल के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, का फलसफा और इतना स्लो जाने की उनकी मंशा किसके पल्ले पड़ी होगी ?
सो दो घंटे से कुछ लंबी फिल्म यदि देख भी ली तो सवाल जस का तस खड़ा रहेगा कि इसमें अजब किस्सा क्या था ? अब तक हम क्या देख रहे थे ? खैर ! यदि गलती से ही देखा है तो बुद्धदेव दा की वजह से यह एक सुंदर गलती है ! फिर जैसे जैसे हम फिल्म देखते चले जाते हैं,, लगता है अब कुछ हुआ, अगले सीन में कुछ होगा , लेकिन कुछ होता नहीं हैं ! ऐसा आभास दिला देना भी तो कम बड़ी बात नहीं हैं ! और पगडंडियां ना देखी हों तो अंत में कैमरामैन ने पूरा मौक़ा दिया है ; शायद उसपर फोकस कर उसे नींद आ गयी होगी ! एक ख़ास बात और , नवाज और पंकज दोनों ही खूबसूरत नजर आते हैं चूँकि फिल्म बनी हैं एक दशक पहले !
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