“रेत समाधि” को मिले बुकर प्राइज़ पर कोई हाइप ही क्रीएट ना हुआ तो कैसे हिंदी प्रतिष्ठित हो !

क्या अनूदित कृति को पुरस्कार मिलने से पुरस्कार का महत्व कम हो जाता है ? सवाल ही बेमानी है, वे उठाते हैं  जिनमें कूवत नहीं है स्वयं कुछ रचने की और आलोचना के नाम पर  नुक्ताचीनी करने भर को ही वे साहित्यिक विधा मान बैठे हैं ! सीधी सी बात है मूल कृति थी तो अनुवाद हुआ एक सहूलियत भर के लिए ! वे पढ़ सकें जिनकी भाषा  हिंदी नहीं है, अंग्रेजी ही समझते हैं। फिर एक अच्छी कृति है तभी तो सरहदें लांघती है और अन्य विदेशी भाषाओं में भी प्रकाशित होती है, सिर्फ अंग्रेजी में ही नहीं ! 

"रेत समाधि" है  तो "Tomb of Sand" हुआ ना ! रचयित्री गीतांजलि श्री अंतरराष्ट्रीय बुकर प्राइज़ जीतने वाली पहली भारतीय हैं और निःसंदेह हिंदी गौरवान्वित है। उनका उपन्यास ‘रेत समाधि’ २०१८ में प्रकाशित हुआ था और उसका अंग्रेजी अनुवाद अमेरिकन डेज़ी रॉकवेल ने किया है ! हाँ , कह सकते हैं कि अंग्रेजी अनुवाद ना हुआ होता तो बुकर प्राइज ना मिलता क्योंकि शर्त जो है कि रचना अंग्रेजी की या अंग्रेजी में अनूदित होने के साथ साथ ब्रिटेन में ही पब्लिश हुई होनी चाहिए ! अब दमखम कहें या उत्कृष्टता कहें, रेत समाधि का ही था कि ब्रिटेन के छोटे  से पब्लिशर Titled Axis Press को इसे छापने का क्रेडिट मिल गया ! और बड़प्पन ही था गीतांजलि श्री का जिन्होंने जब पुरस्कार की लाइव घोषणा हुई, अनुवादिका डेजी को गले से लगा लिया ! पुरस्कार की आधी राशि भी डेजी के साथ शेयर होगी ! 

अब जब रचना की उत्कृष्टता को रिकग्निशन मिल गया है तो हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स ने यूएस के लिए इसके अधिकार खरीद लिए हैं ! 

बात करें गीतांजलि श्री की ! बुकर मिला तो अचानक बहुत सारे लोग पूछने लगे कि यह गीतांजलि श्री कौन हैं? आखिर साहित्य में बुकर पुरस्कार वही मायने रखता है जो फिल्मों में ऑस्कर और इतनी जानकारी तो आज का प्रबुद्ध वर्ग रखता ही है। कुछ वैसा ही है जैसा किसी फिल्म का नामांकन भर ही क्यों ना हो जाए ऑस्कर के लिए ! 'रेत समाधि' ने थोड़ा ध्यान खिंचा था जब इसे इंटरनेशनल बुकर प्राइज की १३ किताबों की लॉन्ग लिस्ट में शामिल किया गया था ; फिर प्रबुद्ध जमात अभिभूत सी हो गई जब इस हिंदी फिक्शन ने छह किताबों की शार्ट लिस्ट में जगह बनाई ! और फिर जब प्राइज इसके नाम हुआ तो कहना ही क्या ? अब तो यकीन मानिये हर कोई इस किताब को "बिंज वाच" मानिंद पढ़ लेना चाहता है !  

मैं अपनी बताऊँ तो पिछले दो सालों से "रेत समाधि" मेरी बुक सेल्फ की शोभा बढ़ा रही थी और मैंने अब इस आद्योपांत पढ़ डाला है।       

 दरअसल इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी समाज और हिंदी साहित्य को एक दूसरे के जितने करीब होना चाहिए, उतने वे नहीं हैं ! वरना तो गीतांजलि श्री आज की हिंदी राइटर नहीं है और ना ही "रेत समाधि" उनकी पहली कृति है ! पूर्व में भी उनकी लिखी कई बेहतरीन कृतियां राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित की, बेस्टसेलर ना हुई एक भी जबकि सभी एक से बढ़कर एक थीं और यदि कहें कि किसी मायने में "रेत समाधि" से कमतर ना थी तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।  

उनका पहला उपन्यास काली पब्लिशर द्वारा प्रकाशित 'माई' था जो एक उत्तर भारतीय मध्यवर्गीय परिवार में तीन पीढ़ियों की महिलाओं और उनके आसपास के पुरुषों के जीवन और चेतना की एक झलक देता है। 'माई' का सर्बियाई, उर्दू, फ्रेंच, जर्मन और कोरियाई सहित कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है। वे तभी सुर्ख़ियों में आ गई थी चूँकि इसके नीता कुमार द्वारा किये अंग्रेजी अनुवाद को  २००१ में क्रॉसवर्ड बुक अवार्ड के लिए चुना गया था।  अनुवादिका नीता कुमार को इसके लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था। विडंबना ही कहेंगे ना जब 'रेत समाधि" ट्रांसलेटेड इनटू "Tomb of Sand " इस साल बुकर के लिए नामांकित हुई तो बात नीता की भी होने लगी ! 

दूसरा उपन्यास 'हमारा शहर उस बरस' नब्बे के दशक में आया था। वह सांप्रदायिकता पर केंद्रित हमारे समय के सबसे संजीदा उपन्यासों में एक है। आसान दीखनेवाली मुश्किल कृति 'हमारा शहर उस बरस' में साक्षात्कार होता है एक कठिन समय की बहुआयामी और उलझाव पैदा करनेवाली डरावनी सच्चाईयों से । बात ‘उस बरस’ की है, जब ‘हमारा शहर’ आए दिन सांप्रदायिक दंगों से (बाबरी मस्जिद ध्वंश के बाद के हालात)  ग्रस्त हो जाता था । आगजनी, मारकाट और तद्जनित दहशत रोजमर्रा का जीवन बनकर एक भयावह सहजता पाते जा रहे थे । कृत्रिम जीवन शैली का यों सहज होना शहरवासियों की मानसिकता, व्यक्तित्व, बल्कि पूरे वजूद पर चोट कर रहा था । बात दरअसल उस बरस भर की नहीं है । उस बरस को हम आज में भी घसीट लाये हैं । न ही बात है सिर्फ हमारे शहर की । ‘और शहरों जैसा ही है हमारा शहर’ – सुलगता, खदकता-‘स्रोत और प्रतिबिम्ब दोनों ही’ मौजूदा स्थिति का । एक आततायी आपातस्थिति, जिसका हल फ़ौरन ढूंढना है; पर स्थिति समझ में आए, तब न निकले हल । पुरानी धारणाए फिट बैठती नहीं, नई सूझती नहीं, वक्त है नहीं कि जब सूझें, तब उन्हें लागू करके जूझें स्थिति से । न जाने क्या से क्या हो जाए तब तक । वे संगीने जो दूर है उधर, उन पर मुड़ी, वे हम पर भी न मुद जाएँ, वह धुल-धुआं जो उधर भरा है, इधर भी न मुद आए । अभी भी जो समझ रहे हैं कि दंगे उधर हैं-दूर, उस पार, उन लोगों में-पाते हैं कि ‘उधर’ ‘इधर’ बढ़ आया है, ‘वे’ लोग ‘हम’ लोग भी हैं, और इधर-उधर वे-हम करके खुद को झूठी तसल्ली नहीं दी जा सकती । दंगे जहाँ हो रहे हैं, वहां खून बह रहा है । सो, यहाँ भी बह रहा है, हमारी खाल के नीचे । अपनी ही खाल के नीचे छिड़े दंगे से दरपेश होने की कोशिश ही है इस गाथा का मूल । खुद को चीरफाड़ के लिए वैज्ञानिक की मेज पर धर देने जैसा । अपने को नंगा करने का प्रयास ही अपने शहर को समझने, उसके प्रवाहों को मोड़ देने की एकमात्र शुरुआत हो सकती है । यही शुरुआत एक जबरदस्त प्रयोग द्वारा गीतांजलिश्री ने हमारा शहर उस बरस में की है । जान न पाने की बढती बेबसी के बीच जानने की तरफ ले जाते हुए ।

उसके कुछ साल बाद उनका तीसरा उपन्यास 'तिरोहित' आया।  यह किसी लेखिका द्वारा लिखा गया हिंदी में स्त्री समलैंगिकता पर संभवत: पहला उपन्यास होगा। लेकिन यह उपन्यास दरअसल बहुत सूक्ष्मता से तीन किरदारों के आपसी रिश्तों की बात करता है। उसे किसी सनसनीख़ेज़ दृष्टि से पढ़ने की कोशिश करना ख़ुद को मायूस करना होगा, क्योंकि यह पूरा उपन्यास इस गझिनता से बुना हुआ है कि इसके भीतर बहुत सावधानी से ही दाख़िल हुआ जा सकता है। उनका चौथा उपन्यास 'ख़ाली जगह' था और अब कुछ बरस पहले 'रेत समाधि' प्रकाशित हुआ है। "खाली जगह" अपने नाम के अनुरूप ही हिंसा , हानि और समकालीन दुनिया में पहचान की खोज जैसे विषयों पर केंद्रित है।इसके फ्रेंच अनुवाद का शीर्षक ‘यून प्लेस वीडे’ (२०१८) है और इसके अंग्रेजी अनुवाद को ‘द एम्प्टी स्पेस’ (२०११) कहा जाता है।           

गीतांजलि श्री ने एक दौर में कहानियाँ भी लिखी हैं और 'वैराग्य' और 'यहां हाथी रहते थे' जैसे उनके कहानी संग्रहों में कई मार्मिक-मनोवैज्ञानिक कहानियां हैं। गीतांजलि श्री दरअसल एक जटिल कथाकार हैं जो बाहर और भीतर की दुनिया को एक साथ साधती हैं।

E P Unny से साभार

उनकी जटिलता और उनकी विद्रोही लकीर ही उनकी पहचान है। "रेत समाधि' से मिले रिकग्निशन ने  शायद वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को सचेत कर दिया है कि अब उनके शब्दों का प्रभाव और उनकी पहुंच जन जन तक ना हो जाए ! तभी तो किसी भारतीय की हर एक बड़ी या छोटी  उपलब्धि की सराहना करने की होड़ में शामिल जमात गीतांजलि श्री के मार्फ़त मिले हिंदी के गौरव पर मौन साधे है। यहाँ तक कि यूपी की योगी सरकार भी चुप है बावजूद इस तथ्य के कि गीतांजलि श्री मैनपुरी की बेटी है। 

हाँ , खानापूर्ति नुमा एक ट्वीट जरूर किया मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने ताकि जब सवाल खड्रे होंगे तो "चाणक्य" बता तो सकें "फैक्ट्स ठीक होने चाहिए" की बिना पर !

हिंदी साहित्य की बंधी-बंधाई परिपाटी को चुनौती देता उपन्यास "रेत समाधि" उत्तर भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है और ८० वर्षीया एक बुजुर्ग महिला की कहानी बयां करता है। पति की मृत्यु के बाद खाट पकड़ ली है. किसी के उठाए नहीं उठती, फिर एक दिन उठती है नई बयार के साथ ! महिला पाकिस्तान जाती है और विभाजन के वक्त की अपनी पीड़ाओं का हल तलाशने की कोशिश करती है। तलाश अपने प्रेमी अनवर की भी है ! वह इस बात का मूल्यांकन करती है कि एक मां, बेटी, महिला और नारीवादी होने के क्या मायने हैं।  महिला की एक अविवाहित और इंडिपेंडेंट प्रोग्रेसिव बेटी भी है।  बेटी मां को अपने घर ले जाती है, उसका ख़याल रखती है और ख्याल रखने के  इस प्रोसेस में बेटी थोड़ी-थोड़ी मां और मां थोड़ी-थोड़ी बेटी बनने लगती है। इसके बाद कहानी में अलग-अलग किरदार और घटनाएं आती हैं, अपने अलग-अलग रंगों के साथ और, इन घटनाओं और किरदारों की आमद के साथ शुरू होता है संघर्ष । नायिका के दिमाग का संघर्ष , जहां वो अपने जिये हुए और भोगे हुए के बारे में सोचती है। 
 किताब इस मायने में यूनिक है कि सिर्फ प्लाट ही यूनिक सा नहीं उठाया है जो अक्रॉस बॉर्डर है, अक्रॉस जेंडर है बल्कि गीतांजलि श्री इसे बयान भी खिलंदड़े और अनूठे अंदाज में करती चली जाती है, खासकर जो सेंट्रल करैक्टर है माँ का वह इतना खिलंदड़ा , इतना रूमानी , अद्भुत, सुन्दर और साथ साथ ही इतना विश्वसनीय हो जाता है कहीं कहीं अतिरंजक तत्वों के आने के बावजूद !

गीतांजलि श्री बहुत गहरे अर्थों को बहुत सूक्ष्मता से साधने वाली  वाली लेखिका है, उनकी भाषा ऐसी सहज और पानीदार है कि लेखक अद्द्श्य होता चलता है और किरदार ठोस होते जाते हैं। वे  मन के भीतर और बाहर की दुनिया को इस तरह रचती है कि रचनाएं एक साथ कई सरहदों के पार जाती दिखती हैं, रेत समाधि यही है।  

ख़ास बात ये है कि उनकी ट्रेनिंग अंग्रेजी की हैं, पिता आईएएस थे, लेडी श्रीराम कॉलेज और फिर जेएनयू से पढ़ी हैं वे, लेकिन लिखती हिंदी में हैं। उनका रिसर्च प्रेमचंद पर है , जिन पर एक किताब उन्होंने लिखी - Between Two Worlds : Intellectual Biography of Premchand

वे कहती हैं उन्होंने हिंदी को नहीं चुना , हिंदी ने उन्हें चुन लिया है। और इसीलिए उनकी इस उपलब्धि को अतिरंजना भी मिल रही है जब १९१३ में रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि को मिली ख्याति से तुलना की जा रही है कि ११०  साल बाद एक और गीतांजलि देश का गौरव बनी है। लेकिन निःसंदेह  हिंदी के लिए यह उत्सव का क्षण है और श्री ने दुनिया में न केवल हिंदी का परचम फहराया है, बल्कि कई प्रतिमान गढ़े हैं।

कहानी का मिजाज भांपने के लिए "रेत समाधि" की ही पंक्तियाँ सटीक बैठती है - "शांति से ज़्यादा क्रांति मगन करती है. शील से ज़्यादा अश्लील, आराधना से ज्यादा दहाड़ना, बनाने से ज़्यादा बिगाड़ना, धीर से ज़्यादा अधीर, चुपचाप से ज़्यादा मारधाप !"

श्री की लेखन विधा अनूठी है, खिलंदड़ापन लिए हैं ! कहीं जिक्र आता है दोहरे मापदंड का,  समाज में व्याप्त डबल स्टैंडर्ड  का तो पूरा एक अध्याय भी कम पड़ गया उनके काव्यांतर को ; वहीँ से उद्धत कुछेक लाइनें याद आ रही हैं - 

और वाह आपकी सूझ जिसमें आप तो मिलनसार , हम वहीं तो मतलबी यार !
आप चुप तो विनयशील , हम चुप तो काइयाँ !
आप करें सो शिष्टाचार , वही हम करें तो लल्लोचप्पो !
आप कहें तो साफ़गोई , हम कहें वही तो बदतमीज़ी !
हम पूछ लें तो अश्लील जिज्ञासा, आप पूछें तो हमदर्दी !
हम करें तो कंजूस , आप करें तो किफ़ायती !
हम चुप तो घमण्डी , आप चुप तो शर्मीले !
……
और हमारे फ़ैशनबल कपड़े नक़ल , आपके जमाने से क़दमताल !
और हमारा गया तो हुँह ऐसा क्या बवाल , आपका गया तो लूट गए हाय हाय !
……
और हमने कहा तो कटाक्ष , आपने कहा तो मजाक !
और हम ग़ुस्साए तो ह्यूमर की कमी, आप ग़ुस्साए तो आत्म सम्मान !
और जी हमने किया तो स्वार्थ , आपने वही तो परमार्थ !
और हमने जितना किया सो कम , आपने ज़रा भी सो ज़्यादा !
और जी अपनी तस्वीर अच्छी तो फ़टॉग्रफ़र माहिर, आपकी अच्छी तो आप सुंदर !
हम काले तो बैंगन भट्ट , जबकि आप काले तो ब्लैक इज़ ब्यूटिफ़ुल !

 हमारी जबान अंग्रेज़ी तो शो ऑफ़ हम , आपकी तो शिक्षित आप !

दरअसल हर अच्छा गद्य काव्यात्मक ही होता है और ऐसी ही रचना बन पड़ी है श्री की। इसमें एक नायाब किस्म की किस्सागोई भी है घुमावदार और कुछ जगहों पर आकस्मिकताओं को समेटे हुए लेकिन करीने से ! इसमें जीवन और जगत के , राष्ट्रीयता और परिवार के , संस्कृति और परंपरा के ,भाषा और कलाओं के कई पहलू हैं जो एक संग नहीं खुलते , अलग अलग संदर्भों में खुलते हैं।  

श्री को साहित्य की सोहबत परिवार से मिली है। उनकी मां साहित्य अनुरागी रही हैं। कहीं उनका साक्षात्कार पढ़ा जिसमें श्री कहती हैं , ‘’मां अब ९५ वर्ष की हैं, शरीर से कमजोर हैं, लेकिन खूब पढ़ती हैं। कृष्णा सोबती का ‘जिंदगीनामा’ वह तीन बार पढ़ चुकी हैं। मेरी रचनाओं को पढ़ती हैं, प्रतिक्रिया देती हैं। मेरा उपन्यास ‘खाली जगह’ उन्हें पसंद नहीं आया, लेकिन ‘माई’ और ‘रेत समाधि’ उन्हें खूब भाया।’’ दरअसल कृष्ण सोबती का श्री पर गहरा असर है। प्रभावित वे हिंदी-उर्दू के ही अन्य लेखनीकारों से भी हैं जिनमें मोहन राकेश, मंटो , पाकी इंतजार हुसैन और रही मासूम रजा भी शुमार हैं। हकीकत में भी श्री ने अपने नॉवेल  'रेत समाधि' को विभाजन के इतिहास की जानकारा कृष्णा सोबती जी को ही समर्पित किया है।   

निश्चित ही श्री की इस उपलब्धि से न केवल हिंदी व हिंदी साहित्य के लिए नए अवसरों के द्वार खुलेंगे, साथ ही वैश्वक साहित्य भी और समृद्ध होगा। पुरस्कार ग्रहण करने के बाद श्री ने कहा, ‘‘मेरे इस उपन्यास के अलावा हिंदी और अन्य दक्षिण एशियाई भाषाओं में बहुद समृद्ध साहित्य मौजूद है। इन भाषाओं के कुछ बेहतरीन लेखकों के बारे में जानकर वैश्विक साहित्य और समृद्ध हो जाएगा। इस प्रकार के मेलजोल से जीवन के आयाम बढ़ेंगे।’’  एक साक्षात्कार में श्री ने कहा, ‘’यह हिंदी में लिखा गया उपन्यास है। उस भाषा का जिसमें अनेक लेखक हैं, जो अगर अनूदित होकर दुनिया के सामने आएं तो और पुरस्कारों के हकदार साबित होंगे।‘’ 

हिंदी साहित्यकार भी मानते हैं कि श्री की उपलब्धि हिंदी को वैश्विक स्तर पर नया मुकाम दिलाने में अहम भूमिका निभाएगी। साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता हिंदी उपन्यासकार अल्का सरावगी ने कहा, ‘‘गीतांजलि श्री की कृति के अनुवाद को बुकर पुरस्कार मिलने से हिंदी लेखन के लिए अवसर के नये द्वार खुल गये हैं।’’

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Prakash Jain

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