विनायक दामोदर सावरकर - एक अध्ययन !

सावरकर माने तेज सावरकर माने त्याग, सावरकर माने तप , सावरकर माने तत्व , सावरकर माने तर्क , सावरकर मने तारुण्य ,सावरकर माने तीर , सावरकर माने तलवार, सावरकर माने तिलमिलाहट , सागरा प्राण तळमळला  ( ओ सागर, मुझे मेरी मातृभूमि ले चल) - दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने परिभाषित किया था विनायक दामोदर सावरकर को ! 

सिर्फ नौ साल का सानिध्य मिला था माँ का बालक सावरकर को ! माँ द्वारा सुनाई गई देशभक्ति की कहानियों ने बाल मन में ही भारत माता की स्वतंत्रता के लिए जो अलख जगाई, वही जीवन का लक्ष्य बन गई ! छत्रपति शिवाजी मराठे सावरकर के आराध्य थे और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का वरदहस्त उन पर सदैव रहा !  

जब तात्या (उनका डाक नाम या कहें उनका पेट नेम) १६ वर्ष के हुए उनके पिता का प्लेग से निधन हो गया। दो भाइयों और एक बहन की जिम्मेदारी बाबा(बड़े भाई गणेशराव सावरकर) पर आन पड़ी और उन्होंने बखूबी निभाया भी। बचपन के ही एक वाकये का जिक्र जरुरी हो जाता है बाल सावरकर के क्रांतिकारी मन को समझने के लिए ! एक दिन तात्या तन्मयता के साथ पूरे राग में अपने आदर्श चाफेकर बंधुओं ( तीन भाईयों की तिकड़ी जिन्हें अंग्रेजों ने १८९८-९९ में फांसी पर लटका दिया था ) पर तुकबंदी कर रहे थे कि पिता ने सुन लिया। उन्होंने पूछा - तात्या ! क्या ये तुकबंदी तुमने रची है ? ......हाँ , ......कब लिखा ? ........रोज रात में जागकर लिखता हूँ ! कल ही पूरा किया ! अण्णा ने प्यार से सर पर हाथ फेरा और कहा - अच्छा लिखा है। पर छपाने के फेरे में मत पड़ना।  सरकार बिफरी हुई है।   

सावरकर अदम्य साहस और अद्वितीय देश प्रेम के प्रतीक थे, धर्म और समाज के अग्रणी सुधारक थे और एक अनूठे क्रांतिकारी काल पुरुष थे। वे स्वयं कहते थे -          

काल स्वयं मुझसे डरा है. मैं काल से नहीं

कालेपानी का काल कूट पीकर, काल से कराल स्तंभों को झकझोरकर  

मैं बार बार लौट आया हूँ और फिर भी जीवित हूँ ; हारी मृत्यु है, मैं नहीं .....!  

जुझारूपन ही था किशोर सावरकर का कि स्वतंत्रता संघर्ष के लिए कभी मित्र मंडल बनाया तो कभी "अभिनव भारत" सरीखा संगठन बनाया। बंगाल विभाजन के विरोध में विदेशी कपड़ों की होली जलाई फिर भले ही कॉलेज के हॉस्टल से निकाल दिया गया जबकि परीक्षा भी सर पर थी। तिलक की सिफारिश पर कानून पढ़ने लंदन गए लेकिन वहां भी भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया, जागरूक किया।

भारत की आज़ादी से चार दशक पहले, साल १९०७ में विदेश में पहली बार भारत का झंडा एक औरत ने फहराया था जबकि भारत के लिए ब्रिटेन का झंडा था। ४६ साल की पारसी महिला भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में हुई दूसरी 'इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस' में ये झंडा फहराया था। ये भारत के आज के झंडे से अलग, आजादी की लड़ाई के दौरान बनाए गए कई अनौपचारिक झंडे में से एक था। झंडा फहराते हुए भीकाजी ने ज़बरदस्त भाषण दिया और कहा, "ऐ संसार के कॉमरेड्स, देखो ये भारत का झंडा है, यही भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है,  इसे सलाम करो !" कामा की प्रेरणा तब के युवा सावरकर ही थे और उन्होंने आगे चलकर मैडम के साथ और भी कई काम किये थे मसलन बंकिम की रची वंदे मातरम् का क्रांतिकारी एडॉप्शन ! विडंबना ही है कि जहाँ भिकाजी कामा का उल्लेख सबों ने किया, सावरकर को तवज्जो नहीं दी गयी ! 

डिस्क्राइब करें झंडे को तो उसमें हरी पट्टी पर बने आठ कमल के फूल भारत के आठ प्रांतों को दर्शाते थे। लाल पट्टी पर सूरज और चांद बना था। सूरज हिन्दू धर्म और चांद इस्लाम का प्रतीक था। जहाँ आज अशोक चक्र है वहां वंदे मातरम् लिखा था तब ! 

विनायक दामोदर सावरकर ही थे जिन्होंने १८५७ की सच्चाई बताते हुए तथ्यों द्वारा सिद्ध किया था कि वह ग़दर नहीं प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था ! उन्हें एहसास था कि सशस्त्र क्रांति ही देश को अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा दिला सकती है और इसीलिए बम बनाने की विधि को गुप्त रूप से भारत भेजा।  

लंदन में ही रहते हुए सावरकर ने ही इंडिया हाउस में १८५७ की क्रांति के ५० वर्ष पूरे होने पर जश्न मनाया। उसी समय का वाकया है जब वायली की हत्या के पश्चात् कैक्स्टन हॉल में मदन लाल ढींगरा के विरुद्ध लाये गए निंदा प्रस्ताव का उन्होंने विरोध किया और तमाम उपस्थित गणमान्य महानुभावों का ध्यान अपनी और आकृष्ट कराया।  

इसी दौरान भारत में क्रांतिकारी घटनाएं अंजाम दी जाने लगी थी और तक़रीबन हर घटना में सावरकर का नाम आने लगा था। नतीजन लंदन में ही उन्हें गिरफ्तार कर जहाज से भारत के लिए रवाना कर दिया गया। उनकी हिम्मत देखिये रास्ते में फ़्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह पर जहाज से ही उन्होंने समुद्र में छलांग लगा दी। पकड़े गए और मुकदमा चलाकर दो आजीवन कारावास की सजा दे दी गयी।

२५-२५ साल के दो आजीवन कारावास की सजा काटने के लिए सावरकर को कालापानी भेज दिया गया ! कालापानी तब पर्याय था अंडमान सेलुलर जेल का जिसका मायने ही था मौत से बदतर जिंदगी ! यातनाएं ऐसी कि लेखनी भी शरमा जाए ! लेकिन जीवट सावरकर ने इन यातनाओं को सहते हुए भी अनेकों साहित्यिक रचनाएं लिख डाली। भाषा उनकी मराठी थी और शैली मुख्यतः काव्य ! चूंकि जेल में ना कागज़ था ना ही कलम, कील से पत्थरों की दीवारों पर कविता लिखते थे और कोल्हू चलाते समय उन्हें गुनगुनाते थे ताकि याद हो जाए ! एक याद हुई तो दूसरी गोदनी चालू कर दी ! इस प्रकार उनका मस्तिष्क ही मानों "ई बुक" बनती चली गयी और उनकी फितरत ही मानो रिमोट हो , ऑन हुआ और वे गाते थे बाकायदा सुर में ! 

बिना रोशनदान की काल कोठरी के एकांत में भी उन्होंने अपनी इच्छाशक्ति को संजोये रखा वरना तो कई कैदी पागल हो जाते थे, कई तो आत्महत्या कर लेते थे। जेल में रहते हुए भी उन्होंने सुधार कार्यों को अंजाम दिया - साक्षरता के प्रति कैदियों को जागरूक किया , पुस्तकालय चालू करवाया , अधिकारियों पर दबाव बनाकर यातनाओं को भी कम करवाया। जेल में कैदी उन्हें बड़े बाबू बुलाते थे और उनके बड़े बाबू मानते थे कि कैदियों की शक्ति का उपयोग सृजनात्मक कार्यों में होना चाहिए। सावरकर के आह्वान पर लोकमान्य तिलक के निधन पर समस्त कैदियों ने एक दिन का उपवास रखा था। वे १४ वर्ष कालापानी में कैद रहे और फिर १३ साल तक रत्नागिरी में हाउस अरेस्ट रहे। 

रत्नागिरी प्रवास के इन तेरह वर्षों में उन्होंने अनेकों सामाजिक कार्य किये। निम्नवर्ग के साथ सामूहिक भोज का आयोजन किया, मंदिरों में इन निम्न वर्ग के लोगों को प्रवेश दिलाया ; पतित पावन की कल्पना को साकार करता पतित पावन मदिर विशेष रूप से इसी के लिए जाना जाता है। ऐसा करने के लिए सावरकर को कट्टरपंथियों के भीषण विरोध का सामना करना पड़ा था परंतु उनका संकल्प था जातपात में बंटे हिंदू सम्प्रदाय को एक करना। विडंबना ही थी कि उनके इस पावन पुनीत कार्य को साम्प्रदायिक करार दिया गया जबकि वे भारत को धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक देश के रूप में देखना चाहते थे ! हाँ , कोई हिंदुओं के अधिकार को छीनकर दूसरों का तुष्टीकरण करें, इसके वे विरोधी थे ! वस्तुतः उनकी परिकल्पना थी हिन्दू मुस्लिम एक होकर रहें ; यही तो परिलक्षित हुआ था भारत के पहले झंडे में ! १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणियों में हिंदू मुस्लिम दोनों ही थे और वे एक होकर खूब लड़े थे जिसका वे उदाहरण देते थे।  

सावरकर सशस्त्र क्रांति में विश्वास रखते थे ! स्वतंत्रता के लिए अहिंसा का रास्ता अपनाये जाने को वे आत्मघाती कहते थे। उनका स्पष्ट कहना था अहिंसा कैसे कारगर होगी जब सामने वाला संस्कारी ना हो और ना ही उसमें मानवीय भाव हों। सावरकर की सशस्त्र क्रान्ति से सुभाषचंद्र बोस काफी प्रभावित थे। विदेश प्रस्थान के से पूर्व सुभाष सावरकर से मिले थे। सावरकर ने ही सुभाष का मार्ग विदेशों में प्रशस्त किया था !  सरदार भगत सिंह ने ही सावरकर को अद्वितीय क्रांतिकारी बताया था और उन्हें "वीर" की उपाधि दी।  

वीर सावरकर के जीवन काल में उनके सरोकार की कई दिलचस्प और प्रेरक बातें हैं, सबों का जिक्र करें तो ग्रंथ बन जाएगा ! सो कुछेक के बारे में बताते चलें जिन्हें थोड़ी बहुत क्रिएटिव लिबर्टी लेते हुए नाट्य रूप में भी प्रस्तुत किया जा सकता है और ऐसा जयवर्धन ने बखूबी किया है अपनी पुस्तक "कालपुरुष क्रांतिकारी वीर सावरकर" में !  

वीर सावरकर से जुड़े विवादों की तह में जाएँ तो बात आईने के मानिंद साफ़ हो जाती है कि तथ्यों को तोड़मरोड़ कर परोसा गया क्योंकि सत्ता पर आसीन होने के बाद पदलोलुपों को वे ही एकमात्र चुनौती लग रहे थे ; तुष्टिकरण की राजनीति से लोगों को अवगत जो करा रहे थे। ऑन ए लाइटर नोट बताते चलें किसी  बड़े कांग्रेसी नेता ने उनसे कहा कि आप कांग्रेस क्यों नहीं ज्वाइन कर लेते ? सावरकर का जवाब था - "चाचा और बापू की पार्टी में मेरा क्या काम ? मुझे कौन तवज्जो देगा ? हाँ , एक आदमी है सुभाष, वहां बना रहे !" 

उनके "माफीनामे" को खूब एक्सप्लॉइट किया जाता रहा है ! क्या है माफीनामे का सच ? "जब वीर सावरकर को काला पानी की सजा हुई थी तब उन्होंने अंग्रेज सरकार के सामने एक याचिका दी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि – यदि उन्हें छोड़ दिया जाये तो वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलनों से अलग हो जायेंगे, और ब्रिटिश सरकार के प्रति एक दम वफादार रहेंगे !"  और जब वे अपनी सजा पूरी करके जेल से बाहर निकले तब उन्होंने अपने वादे की तोड़ा नहीं और वे किसी भी क्रांतिकारी गतिविधि में शामिल नहीं हुए - ऐसा विरोधी कहते हैं ! सच स्वयं सावरकर ने अपनी किताब  "मेरा आजीवन कारावास" में बताया है कि उन्हें जेल के बाहर इसलिए नहीं आना था कि उन्हें अपने किए पर पछतावा था, बल्कि इसलिए कि वे मातृभूमि की सेवा में और भी कुछ करना चाहते थे।  दरअसल सावरकर दूरदर्शी तो थे ही, व्यावहारिक भी थे। तभी तो एक अंतिम प्रयास के रूप में उन्होंने पछतावे का नाटक रचा था। चूंकि माफीनामे का कोई रिकॉर्ड नहीं है, माफीनामे की सच्चाई कुछ और बताने की मंशा कुत्सित ही है वरना तो वही सच है जो सावरकर ने बताया है ; क्योंकि वे ये भी तो कह सकते थे मैंने कोई माफ़ी नहीं मांगी थी और मेरे लिए याचिका बिना मेरी जानकारी के लगी थी ! 

सच क्या है और झूठ क्या है - ये बहस ही बेमानी है। भगत सिंह और सावरकर में बहुत मौलिक अंतर है। भगत सिंह ने जो बम फेंकने का फ़ैसला किया, उसी दिन उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें फांसी का फंदा चाहिए। दूसरी तरफ़ वीर सावरकर एक चतुर क्रांतिकारी थे। उनकी कोशिश रहती थी कि भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है ! सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े की उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे। उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे।   

वीर सावरकर के साथ ज्यादती की पराकाष्ठा ही थी जब उन्हें गांधीजी की हत्या में फंसाकर उनकी सामाजिक हत्या कर दी।  तथ्य बताते हैं कि संविधान निर्माता बी आर अंबेडकर ने एक दिन सावरकर के वकील भोपटकर को बताया था कि किसके इशारे पर सावरकर की छवि धूमिल की गई जबकि मंत्रिमंडल के अनेक सहयोगी इस षड्यंत्र के रचे जाने के पक्ष में नहीं थे। खैर, जो हुआ सो हुआ ! अंततः सावरकर बाइज्जत बरी हुए लेकिन मिथ्या आरोप की आड़ में सावरकर के साथ अमानवीय बर्ताव किया गया। बकौल उनके पुत्र विश्वास स्वयं उनके ही शब्दों में - "जितनी पीड़ा , अपमान और तिरस्कार मुझे अपने स्वतंत्र भारत की सरकार से मिला, उतना तो अंग्रेज सरकार से भी नहीं !" उन्हें बरी करने वाले न्यायाधीश ने अपने फैसले में निर्देश भी दिया था कि किसकी स्वीकृति से सावरकर का नाम गांधी जी की हत्या में डाला गया, इसकी जांच होनी चाहिए।लेकिन हुआ कुछ नहीं ! 

कुल मिलाकर सावरकर के जीवन से जुड़े तथ्यों को सम्माराइज़ करें तो - 

  1. वीर सावरकर ने खुद को नास्तिक घोषित कर दिया था, इसके बावजूद भी हिंदू धर्म को वे पूरे दिल के साथ निभाते थे। और लोगों को उसकी और बढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी किया करते थे। क्योंकि राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान के रूप में वे खुद को हिंदू मानते थे और यदि कोई उनको हिंदू बुलाता था तो उन्हें बहुत ज्यादा गर्व महसूस हुआ करता था।

  2. वे कभी भी हिंदुत्व को धर्म के रूप में नहीं मानते थे. बे अपनी पहचान के रूप में हिंदुत्व को देखा करते थे वही उन्होंने हजारों रुढ़िवादी मान्यताओं को खारिज कर दिया था जो हिंदू धर्म से जुड़ी हुई थी, लेकिन व्यक्ति के जीवन में उन मान्यताओं का कोई भी आधार नहीं था।

  3. अपने जीवन का राजनैतिक रूप भी बखूबी निभाया, उन्होंने राजनैतिक रूप में मूल रूप से मानवतावाद, तर्कवाद, सार्वभौमिक, प्रत्यक्षवाद, उपयोगितावाद और यथार्थवाद का एक मुख्य मिश्रण अपने जीवन में अपनाया।

  4. देश भक्ति के साथ-साथ भारत की कुछ सामाजिक बुराइयों के खिलाफ दोनों ने अपनी आवाज उठाई जैसे जातिगत भेदभाव औऱ अस्पृश्यता जो उनके समय में बह प्रचलित प्रथा मानी जाती थी।

  5. उनका कहना था कि उनके जीवन का सबसे अच्छा और प्रेरित भरा समय वह था जो समय उन्होंने काला पानी की सजा के दौरान जेल में बिताया था।  काला पानी की सजा के दौरान जेल में रहते हुए उन्होंने काले पानी नामक एक किताब भी लिखी थी जिसमें भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं के संघर्षपूर्ण जीवन का संपूर्ण वर्णन है।

सावरकर की प्रतिमा पतित पवन मंदिर में

अंत में वीर सावरकर की मृत्यु से जुड़े तथ्यों का जिक्र लाजमी हो जाता है। वीर सावरकर ने अपने जीवन में इच्छा मृत्यु का प्रण ले लिया था इसलिए उन्होंने पहले ही सबको बोल दिया था कि वे अपनी मृत्यु तक उपवास रखेंगे अन्न का एक दाना भी मुंह में नहीं रखेंगे। अपने अंतकाल में लिए गए उपवास को लेकर उन्होंने यही कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने की पूरी अनुमति प्राप्त होनी चाहिए कि वह अपना जीवन कैसे समाप्त करना चाहता है और किस प्रकार अपने जीवन का वहन करना चाहता है इस बात की पूरी अनुमति उस व्यक्ति को मिलनी चाहिए। उन्होंने जैसे ही अपने प्रण के अनुसार उपवास आरंभ किए उस दौरान अपनी मृत्यु से पहले एक लेख लिखा जिसका नाम “यह आत्मह्त्या नहीं आत्मतर्पण है” रखा गया। जैन धर्म में इसी प्रण को संथारा लेना कहा जाता है।  एक फ़रवरी १९६६ के दिन उन्होंने अन्न त्याग दिया और २६ फ़रवरी १९६६ के दिन अपने मुंबई आवास में देह भी त्याग दी।  

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Prakash Jain

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