तो फिर इंसान को सजा क्यों ? क्या इसलिए कि वो गिल्टी माइंड उसका है ? बिल्कुल यही वजह है तभी तो as a general rule, someone who acted without mental fault is not liable in Criminal Law या लैटिन में जैसा कहा गया है -“ actus reus non facit reum nisi mens sit rea “ यानि "the act is not culpable unless the mind is guilty".
५०-५५ मिनट के दस एपिसोड्स हैं सीरीज "गिल्टी माइंडस" में ! फॉर्मेट कमोबेश प्रद्युमन और दया वाली "सीआईडी" सरीखा ही है ! इस फॉर्मेट को कहते हैं एपिसोडिक फिक्शन जिसमें किरदार वही हैं, थीम और प्लॉट भी वही हैं लेकिन हर एपिसोड की कहानी अलग है !
महान दार्शनिक अरस्तु फिक्शन की इस विधा से इत्तेफाक नहीं रखते थे ; तभी तो उन्होंने खरी खरी सुनाने से गुरेज नहीं किया , " ...... . . . Of SIMPLE plots and actions the worst are those which are EPISODIC . By this I mean a plot in which the episodes do not follow each other probably or inevitably....."
उनके मुताबिक़ एपिसोडिक कंटेंट्स वे लिखते हैं जो बुरे हैं और कभी कभी अच्छे लेखक इसलिए लिखते हैं चूँकि उन्हें एक्टरों को खुश करना होता है। लेकिन हर हाल में ये एक बुरा वर्क होता है जिसमें घटनाएं अकस्मात घटती हैं और एक्सीडेंट्स लगती हैं जबकि बहुधा घटनाएं आपस में जुडी होती हैं, एक घटना दूसरी घटना को अंजाम देती है !
निःसंदेह सीरीज में खामियां हैं लेकिन कोर्ट रूम ड्रामा के रूप में लाजवाब है। क्योंकि कहीं भी अदालत फ़िल्मी नहीं हो पाई है ; 'तारीख पे तारीख' ......'कानून अँधा होता है, जज नहीं उसे सब दीखता है '........'कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं '....’आज समाज में उसकी इज्जत होती है जो क़ानून तोड़ता है’……’ना तारीख़ ना सुनवाई सीधा इंसाफ़ वो भी ताबड़तोड़’ ….. जैसे चलताऊ डायलॉग नदारद हैं ! ताजिरात-ए-हिंद की दफाओं की दुहाई भी न्यायाधीश महोदय नहीं देते हैं और ना ही वे आर्डर आर्डर करते नजर आते हैं ! कुल मिलाकर मेकर्स की टीम ने कोर्ट रूम को मूर्त रूप प्रदान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।
चूँकि हर एपिसोड में अलग अलग केस है, जगह अलग अलग है सो अदालत भी अलग अलग है , न्यायाधीश भी अलग है, वकील भी अलग अलग है सिवाय मुख्य किरदारों के जो अक्सर प्रतिद्वंद्वी भी हैं लेकिन जैसा अदालती भाषा में कहते हैं वे सब मेरे तेरे फाजिल दोस्त हैं। तक़रीबन हर एपिसोड कभी न कभी एहसास करा ही देता है कि कोर्ट रूम असल है ; शायद मेकर्स ने ऑस्कर नॉमिनेटेड मराठी फिल्म "कोर्ट" देख रखी थी। ख़ास जो बनता है हर एपिसोड उसकी वजह है नया केस, नया एंगल , नई जगह , नयी समस्या , नई भाषा और नयी ही संस्कृति ! और ख़ास है किरदारों का अपनी मूल भाषा और उसके लहजे से चिपके रहना मसलन एक फीमेल 'झा' हैं, बिहारी लहजे में ही बोलती है हालांकि स्वरों में वह वांक्षित उतार चढाव नहीं रख पाती है। एक बंगाली लेस्बियन किरदार भी है जिसका होना शायद ओटीटी प्लेटफार्म का कंपल्सन है ! मुख्य किरदार दीपक राणा पहाड़ी है हिमाचल से जो है ; वरुण मित्रा ने अच्छी मेहनत की है और खूब ढाला है स्वयं को इस किरदार में। उनकी फिल्म 'जलेबी' फ्लॉप हुई थी लेकिन वरुण ने खुद की संभावनाओं को जता दिया था।
निर्देशक शेफाली भूषण और जयंत दिगंबर ने विभिन्न एपिसोडों के अहम किरदारों में श्रिया पिलगांवकर, वरुण मित्रा, कुलभूषण खरबंदा , सुगंधा गर्ग, नम्रता शेठ, सतीश कौशिक, शक्ति कपूर, बेंजामिन गिलानी और गिरीश कुलकर्णी जैसे कलाकारों से अच्छा अभिनय करवाया है। हर एपिसोड अपेक्षाकृत लंबे हैं लेकिन विषय जो चुने गए हैं उनकी गंभीरता देखें तो लेंथ जस्टिफाई होती है। कहानियों की विविधता मसलन कास्टिंग काउच, वीडियो गेम एडिक्शन, टेस्ट ट्यूब बेबी फ्रॉड, डेटिंग ऐप के जरिए धोखाधड़ी, कॉपीराइट क्लेम, ड्राइवर लेस कार स्कैम रोचक बन पड़े हैं क्योंकि कहानियां लीगल पॉइंट ऑफ़ व्यू से कही गयी हैं और खूब कही गयी हैं ; कहीं अतिरंजना नहीं हैं, फिजूल का हाइप नहीं है !
खूबी ये भी है कि एपिसोडिक होते हुए भी कॉमन किरदारों को यूँ रचा गया है क़ि पूरी सीरीज अपने आप में स्टैंड अलोन का सा आभास देती है ! कुल मिलाकर दस अलग अलग "अनकॉमन" कहानियां (आम चोरी, डकैती , मर्डर की कहानियों से अलग) अनेकता में एकता की मिसाल कायम करती है कॉमन किरदारों और कॉमन थीम तथा प्लॉट की वजह से !
हाँ, जो अखरता है वो है वाइट कॉलर फ्रटर्निटी को बिलोंग करने वाले लोगों की फ़ाउल लैंग्वेज, उनका ड्रग्स लेना ,न्यूडिटी और सेक्सुअल ओरिएंटेशन को उजागर करते इनपुट्स ; क्या ये सब ओटीटी कंपल्शन है या फिर हकीकत है इन लोगों की ? डिस्क्लेमर है कि ये सारे ताने बाने स्टोरीलाइन के अनुरूप हैं ! यही बातें अरस्तू की मान्यता को चरितार्थ करती प्रतीत होती हैं ! एक बात और, इन सब की वजह से ही सारगर्भित विषयों को उठाती कहानियां भी डाइनिंग रूम की कॉमन वाच सीरीज नहीं बन पाई है ! ना चाहते हुए भी इस सीरीज को बेडरूम वाच ही नसीब हो रही है।
अन्यथा सीरीज का पूरा कंटेंट ही बेहतरीन है ; यदि कहें कि •क्रिमिनल जस्टिस’और ‘योर ऑनर’ से भी बेहतर है तो अतिशयोक्ति नहीं है। वजह सिर्फ एक ही है तरीका फ़िल्मी नहीं है।
डायरेक्शन की बात करें तो शायद इतना सधा हुआ इन दिनों कहाँ देखने को मिला है ! हर चीज परफेक्ट है ; ह्यूमन फैक्टर हो या लॉजिक हो या इमोशंस हों या किरदारों का स्क्रीन शेयर हो ! म्यूजिक की बात करें तो फॉल्क और नीरवता का अद्भुत मिश्रण है। बेहतरीन मोमेंट्स जब तब सहज ही आते हैं कि व्यूअर असहज सा हो उठता है। हर एपिसोड अलग अलग जगह ले जाता है तो वहां का संगीत, लोक संगीत सुनने को मिलता है; म्यूजिक किसी भाषा का मोहताज जो नहीं है। गजब का कर्णप्रिय है म्यूजिक ! टाइटल ट्रैक तो इतना लुभाता है कि इंट्रो स्किप करना बनता ही नहीं,"लगा दे म हटा के स तू, सज़ा मज़ा में फ़र्क है ना ज़्यादा"
संवादों की बात करें तो अच्छे बन पड़े हैं और सलीका ऐसा है कि चोट भी करते हैं, बेवजह नहीं जरुरत के मुताबिक़ ! सामयिक रेफरेंसेज भी सलीके से उठाये गए हैं मसलन टू मच डेमोक्रेसी या फिर सब चंगा सी। एक डायलॉग भी है: पहले सवाल पूछने पर विद्रोही कहा जाता था और अब देशद्रोही !
सीरीज ताजगी लिए है सो देखना बनता है भले ही रोजाना एक एक एपिसोड ही देखा जाए ! वैसे कईयों के लिए वन गो में ही सारे एपिसोड देखना क्वालीफाई करता है क्योंकि हासिल करने के लिए बहुत कुछ है !
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