'मुझे भी जिद है वहीँ आशियाँ बसाने की' कहा उसने जब पूछा "कौन प्रवीण तांबे ?"

स्पोर्ट ड्रामा बायोपिक केटेगरी की फिल्म "कौन प्रवीण तांबे ?" सही मायने में निष्कपटता से विश्वास पैदा करती है - "Never give up on your dreams, they do come true !" 

बात करें क्रिकेट बेस्ड बायोपिक फिल्मों की तो नामचीन खिलाड़ियों मसलन धोनी (एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी),तेंदुलकर( (सचिन : ए बिलियन ड्रीम्स ), कपिल देव (हालिया 83 ), अजहर रुपहले पर्दे पर आ चुकी हैं, टॉप महिला क्रिकेटर मिथाली राज की बायोपिक "शाबाश मिठू" जल्द ही आने वाली है। अब अनजान से किसी मुम्बईकर क्रिकेटर प्रवीण तांबे की बायोपिक आयी है तभी तो टाइटल है फिल्म का "कौन प्रवीण तांबे ?"     

बायोपिक जब बनाई जाती है तो व्यूअर्स को लुभाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी लेते हुए अनेकों लार्जर दैन लाइफ सरीखे ड्रामेटिक मोमेंट्स क्रिएट किये जाते हैं लेकिन इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है।कहानी और उनके  किरदार बिल्कुल जमीनी हैं, कहीं कोई अतिश्योक्ति या 'बढ़ा चढ़ा कर' वाला एलिमेंट नहीं है। फिर भी फिल्म हमें प्रवीण की दुनिया में उतार देती है, हम उसकी जर्नी से स्वयं को कनेक्ट कर लेते हैं कि कैसे एक अदना सा इंसान बनकर टूटता है और फिर से खुद को बनाता है ! सोहन लाल द्विवेदी की फेमस कविता स्मरण हो आती है मानों  प्रवीण की जीवन यात्रा ही इस नज्म की प्रेरणा हो -

.......असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,

क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।

जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,

संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।

कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ........

खेलों की दुनिया के चैंपियन अपनी किशोरावस्था में देश-दुनिया को चौंकाने लगते हैं और पैंतीस-चालीस के बीच अधिकांश बाहर भी हो जाते हैं ! क्रिकेट भी अपवाद नहीं हैं ; तमाम दिग्गज खिलाड़ियों को लीजिये - क्या गावस्कर क्या धोनी क्या तेंदुलकर क्या अजहर सभी ३८-४० वयस आते आते रिटायर हो गए ! लेकिन प्रवीण तांबे ऐसा नाम है, जो उस अवसान की उम्र में आईपीएल सरीखी स्थापित अंतराष्ट्रीय टूर्नामेंट के तहत राष्ट्रीय मैदान में पहला कदम रखते हुए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है। 

क्रिकेट के अधिकतर फैंस भी शायद प्रवीण से परिचित ना हों और यदि हैं भी तो उसकी जिंदगी के पहलुओं से तो निश्चित ही नहीं हैं। सो फैंस के साथ साथ आम व्यूअर्स की जिज्ञासा भी फिल्म देखकर ही शांत होनी चाहिए और इसलिए कहानी को डिटेल आउट करने से परहेज रखते हैं। हाँ, फिल्म की शुरुआत का जिक्र लाजमी है जब भारतीय क्रिकेट टीम के मौजूदा कोच और भारतीय क्रिकेट की दीवार कहे जाने वाले राहुल द्रविड़ ने २०१४ के किसी इवेंट में स्पीकर की हैसियत से जो कहा था, सुनाया था, उसका वीडियो चलता है। वे जो कह रहे हैं वही "कौन प्रवीण तांबे ?" का इंट्रोडक्शन है और वही प्रवीण तांबे का सम्मान भी हैं - "‘लोगों की उम्मीद रहती है कि मैं सचिन, गांगुली, लक्ष्मण या कुंबले की बात करूंगा लेकिन मैं एक कहानी सुनाना चाहूंगा जो प्रवीण तांबे की कहानी है।आईपीएल के जरिए उनका नाम आपका ज़रूर सुना होगा। प्रवीण ने मुंबई के अलग-अलग ग्राउंड में करीब २०  साल तक क्रिकेट खेला।लेकिन वो कभी भी मुंबई का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाए। ये लगातार २० साल तक चलता रहा।  ये कहना आसान है लेकिन करना मुश्किल है, प्रवीण ने ये किया।.......  जब हमने राजस्थान रॉयल्स के लिए प्रवीण तांबे को देखा तब वहां किसी युवा क्रिकेटर ने कहा कि ये अंकल कौन है !हमारे सीईओ ने भी मुझसे इस बारे में कहा कि आपने कैसे ४१ साल के इंसान को सिलेक्ट किया है। तब मैंने उनसे कहा कि नहीं, इसमें कुछ है जिसपर हमें विश्वास है।"

क्रिकेट के बहाने इंसानी जिद और जुनून की कहानी है और फिर भारत में क्रिकेट और सिनेमा इन दोनों से बढ़ कर कुछ नहीं हैं। निःसंदेह क्रिकेट के फैंस चौकेंगे और साथ ही सिनेमाप्रेमी भी खूब एन्जॉय करेंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो एक कंटेंट सिनेमा है; जिसका फलसफा है उम्र कुछ नहीं सिर्फ एक नंबर है, ऊँचे लक्ष्यों के लिए जूझने वालों को ये क्रिकेट की भाषा में मॉरल देती है - ‘लाइफ हो या मैच, ऑल यू नीड इज वन गुड ओवर.’ 

प्रवीण का रोल श्रेयस तलपड़े ने निभाया है।डेफ एंड म्यूट किशोर क्रिकेटर इकबाल के किरदार में "इकबाल" में  डेब्यू करने के बाद वे यहां भी क्रिकेटर बने हैं मानों इकबाल ही उम्र के साथ साथ अनम्यूट हो गया है और सुनने भी लगा है। श्रेयस कहीं भी एक्टिंग करते नहीं लगते बल्कि वे कॉमन मैन वाली लाइफ जीते हुए दीखते हैं। खिलाड़ी के रूप में भी वे किसी खिलाड़ी की नक़ल नहीं करते ; सब कुछ एकदम नेचुरल है। प्रवीण की पत्नी के रूप में अंजली पाटिल बेहतरीन चॉइस साबित हुई है और कोच की सीमित भूमिका में आशीष विद्यार्थी खूब जमे हैं ! एक अखबार के स्पोर्ट्स जोर्नो के मजेदार किरदार में परमब्रत चक्रवर्ती फिट बैठे हैं ; उनकी प्रासंगिकता अंत तक बनी रहती है चूँकि कहानी वही कह रहे हैं मानों सूत्रधार हैं वो ! 

पिक्चर की खासियत इसके मॉरल सरीखे ढेरों वन लाइनर हैं - .'.....प्रॉब्लम है कि तुम्हें प्रॉब्लम बताना पड़ रहा है। ....तू तेरे टैलेंट के अगेंस्ट खड़ा है .........तू वही सुनेगा जो तू सुनना चाहता है ..... ! मुंबई की टफ चाल लाइफ के ह्यूमर मोमेंट्स भी खूब उभर आये हैं, गुदगुदाते हैं ! 

मराठी निर्देशक जयप्रद देसाई का हिंदी सिनेमा में ये प्रयास उनका वन गुड ओवर साबित हुआ है। कहानी और फिल्म के हर दृश्य पर उनकी पकड़ है , खेल के मैदान के दृश्य हों या पारिवारिक रिश्तों की रचना, उन्होंने दोनों को समान कौशल से रचा है। बिना किसी हंगामे के, बिना शोर शराबे के उन्होंने पूरा फोकस रखा है प्रवीण तांबे की कड़ी मेहनत, निरंतर प्रयास और जीतने की जिद पर ! कैमरा वर्क अच्छा है, एडिटिंग भी कसी हुई है जिस वजह से दो घंटे १३ मिनट की यह फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखती है।  "कौन प्रवीण तांबे ?"  हाल के वर्षों में क्रिकेट पर बनी फिल्मों से अलग, याद रखने योग्य और एक मायने में प्रेरणा लेने जैसी है। हमारे मिडिल क्लास किशोरों-युवाओं को ऐसी फिल्मों की जरूरत है ताकि समझ सकें कि इंसान जिद ठान ले तो क्या नहीं कर सकता और फिर किस्मत भी बहादुरों का साथ देती है ! 

प्रवीण तांबे ने साल २०१३  में इंडियन प्रीमियर लीग में राजस्थान रॉयल्स के लिए अपना पहला मैच खेला था और  साल २०१६ में बेंगलुरु के खिलाफ वह आखिरी बार मैदान में उतरे थे। ४१  की उम्र में आईपीएल का डेब्यू और ४४  की उम्र में आखिरी मैच ! कहने को तो प्रवीण तांबे ने इन तीन साल.में ही उन २० साल की मेहनत का फल पा लिया था और फिर मैदान से बाहर होने के बाद भी प्रवीण तांबे अलग-अलग टीम के साथ जुड़े रहे। पहले सनराइजर्स हैदराबाद और अब कोलकाता नाइट राइडर्स के साथ बतौर सपोर्ट स्टाफ मेंबर के तौर पर जुड़े हुए हैं ! 

अंत में उन पलों का ज़िक्र तो बनता ही है जब कोलकाता नाइट राइडर्स (केकेआर) टीम के साथ अपने जीवन पर बनी यह फिल्म देखने के बाद, मीडियम पेसर टर्न्ड लेग स्पिनर प्रवीण तांबे अपने आंसू नहीं रोक पाए। 'प्रवीण का ये  रिएक्शन केकेआर ने अपने ट्विटर पर एक वीडियो कर दिखाया जिसमें तांबे व्याकुल होकर रोते हुए कहते दीखते हैं - "लोगों ने मेरे ४१ साल की उम्र में डेब्यू को देखा है लेकिन उसके पीछे के संघर्ष को नहीं। मैं बस कहना चाहता हूं कि कभी भी अपने सपनों को फॉलो करना मत छोड़ो क्योकिं यह कभी न कभी सच होते हैं।" इसके बाद प्रवीण तांबे के साथी खिलाड़ी उनको प्रोत्साहित करते दिखाई देते हैं ! 

कुल मिलाकर एक बेहतरीन पिक्चर है जो डिज़्नी हॉटस्टार पर स्ट्रीम हो रही है। एक बार फिर सोहन लाल द्विवेदी की कविता की अन्य कुछ लाइनों का जिक्र करते चलें -   

                                    लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,

चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।

मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,

चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।

आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,

जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

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Prakash Jain

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