द्वंद्वों (कन्फ्लिक्ट्स) का शॉक है, थ्रिल है और सस्पेंस भी है ! हाँ , कुछेक अनुत्तरित प्रश्न भी है मसलन मूवी का नाम 'जलसा' क्यों है ? क्लाइमेक्स भी अनुत्तरित सा ही है या कहें दुरूह है ! और यही दो बातें कमर्शियल पॉइंट ऑफ़ व्यू से फिल्म के लिए सेटबैक साबित होने जा रही है, कम से कम व्यूअर्स की फुसफुसाहट से तो यही समझ आया है ! परंतु जरूरत गहराई में जाने की है क्योंकि फिल्म ना तो सस्पेंस थ्रिलर है और ना ही कोई इनवेस्टिगेटिव पीस है ! सो कह सकते हैं फिल्म क्लास का क्लास के लिए क्लास के द्वारा है, तो पॉपुलर कैटेगरी से इतर ही कहलाएगी !
थीम की बात करें तो फिल्म मानवीय भावनाओं के सैलाब को दिखाने का प्रयास करती है और निःसंदेह विद्या बालन और शेफाली शाह सरीखे उम्दा कलाकारों की वजह से सफल भी रही है ! कभी-कभी जिंदगी में, हर किसी के मन में कोई चोर छुपा होता है। एक अपराध बोध-सा रहता है। स्थिति आती है कि वह भुगतना चाहता/चाहती है जिसे मुक्ति पाने की कोशिश कहें, या पश्चाताप ! पर उसकी हैसियत, उसका रुतबा, उसका सोशल स्टेटस उसे खुलकर पश्चाताप भी नहीं करने देता ! यही कनफ्लिक्ट है, द्वंद्व है। थीम में ट्विस्ट भी है जिसके प्रति अपराध हुआ, वह इसी दुखी आत्मा से मदद पा रहा है। और, उसे पता नहीं कि जो दया उस पर की जा रही है, दरअसल वह तो उसके हक से कहीं ज्यादा है।
एक एक्सीडेंट के इर्द गिर्द कहानी है जिसके और भी किरदार हैं ,उनके भी अपने अपने कनफ्लिक्ट हैं परंतु सारे कन्फ्लिक्ट्स की वजह वही एक्सीडेंट ही है ; यानि एक्सीडेंट इज़ कॉमन टू आल डिफरेंट कन्फ्लिक्ट्स !
अमेज़न प्राइम वीडियो की इस प्रस्तुति के कर्णधार हैं तुम्हारी सल्लू फेम सुरेश त्रिवेणी ! 'हब एंड स्पोक मॉडल' के एडॉप्शन का आभास देती हुई इस मूवी के केंद्र में एक महत्वपूर्ण इत्तेफाक है; इत्तेफाक और भी कई हैं लेकिन जैसा पहले ही बताया ना तो इन्वेस्टीगेशन और ना ही जर्नलिज्म इसका उद्देश्य है वरना नाम "माया मेनन कंफेसेज़ (Maya Menon Confesses)" होता "जलसा" नहीं !
अब कहें तो सुरेश त्रिवेणी की यूएसबी है कि उनकी फिल्म महिला प्रधान ही होती है, फीमेल किरदारों की फ़ौज में पुरुषों की कमी खलती सी है ! ऑन ए लाइटर नोट कहें तो बड़ी जनानी टाइप की पिक्चर बनाते है वो ! जो भी हो विद्या बालन (माया मेनन ) और शेफाली शाह (रुखसाना ) सरीखी दिग्गज एक्ट्रेसेस को वे साथ साथ ला पाए हैं, क्रेडिट गोज टू हिम ! लेकिन वे महिला रिपोर्टर रोहिणी जॉर्ज की जगह मेल रिपोर्टर जॉर्ज भी तो रख सकते थे ! चूँकि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उन्हें नारी चरित्रों का भान है ! वैसे विधात्री बंदी ने बखूबी निभाया है रोहिणी को !
वेब सीरीज 'दिल्ली क्राइम' और 'ह्यूमन' से शेफाली शाह और 'शेरनी' और 'शकुंतला देवी' जैसी फिल्मों से विद्या बालन यह साबित कर चुकी हैं कि अपने दम पर वे किसी तरह के सिनेमा को सफल बनाने की ताकत रखती हैं ! इस फिल्म में दोनों को एक साथ देखना और भी अच्छा लगता है !
फिल्म में एक मेल किरदार है माया मेनन के तलाकशुदा पति आनंद का जिसे निभाया है वेटेरन मानव कौल ने ! रोल छोटा सा है, संवाद भी ना के बराबर हिस्से आये हैं ! वैसे पूरी पिक्चर में ही संवाद का तो मानों अकाल सा ही है, बिन कहे ही हर किरदार बहुत कुछ कह जाता है ! कुल मिलाकर भावप्रवणता विशेषता है फिल्म की और भावप्रवण कलाकारों ने इसमें चार चाँद लगा दिए है।
कुल मिलाकर बहुत कम लेकिन सशक्त संवाद हैं मसलन आनंद (मानव) पूछता है माया से , " सब ठीक ?" दोनों अलग हो गये हैं, उनका एक पास्ट है लेकिन अभी भी एक रिश्ता है तभी तो माया तब मिलने जाती है जब वह घिर गयी है चारों तरफ से और मानव को उसकी परेशानी भांपने में समय नहीं लगता ! अदना सा एक किरदार है लेकिन क्या दमदार बात कहलवा दी गई है, "मैं पत्रकार नहीं बन सकता क्योंकि मैं सच्चा आदमी हूं !" हालांकि बचना चाहिए था क्योंकि अपनी व्यक्तिगत खुन्नस निकालने के लिए सिर्फ अटेंशन के लिए जर्नलिज्म के पेशे पर फब्ती कसना उचित नहीं लगता है।
"जलसा" की ताकत उसकी वास्तविक सी लगती कहानी है, एक्टरों की जबरदस्त एक्टिंग है और इन सब को सही तरीके से परोसने का काम डायरेक्टर सुरेश त्रिवेणी ने अपनी टीम के साथ किया है। फिल्म देखते हुए कभी एकदम शॉक सा लगता है...फिर एक मोमेंट के बाद फील आता है कि कुछ बड़ा होने वाला है और फिर कुछ जानने की अचानक से इच्छा तेज हो जाती है। कहानी एक साथ कई सारे इमोशन जनरेट कर जाती है जो अंत तक कहानी के साथ बांधकर रखते है। बारीकियां इतनी है कि समझना आम नहीं है मसलन जिस लड़की का एक्सीडेंट होता है, वह एक जगह कहती है कि एसी में वह नहीं सो सकती। फिर एक्सीडेंट के बाद उसे बड़े हॉस्पिटल में एडमिट किया जाता है और वहां का बुनियादी शॉट एक चलते हुए एसी का है , किसी मेडिकल इंस्ट्रूमेंट, आईसीयू या स्थेथोस्कोप लगाए डॉक्टर का नहीं !
निःसंदेह पिक्चर के दो ही मुख्य किरदार हैं - माया हर फ्रेम में लाजवाब है जब वह कॉंफिडेंट एंकर हैं या फिर एक्सीडेंट करने के बाद जब वह डरी डरी सहमी सी है, उंगलियां कंपकंपा रही है। रुखसाना (शेफाली ) उतना ही बोलती है जितना बोलना है, बाकी काम उसकी आंखें कर जाती है ; लगता ही नहीं वह लोअर इकनोमिक क्लास की औरत की एक्टिंग कर रही हैं ! वो तो है ही खाना बनाने वाली, एक बीमार बच्चे की देखभाल करते वक्त कोमल दिल वाली महिला और दूसरे ही पल वह अपनी बेटी के साथ हादसा होने के बाद एक आक्रोशित मां भी है ! अपने अपने हर शेड में दोनों ही खूब हैं, आमने सामने जब भी हैं, एक दूसरे से कम नहीं है !
खूबी जो है पिक्चर देखने बैठ जाइये ..... आधा घंटा ......एक घंटा ......दो घंटा .....और फिर फिल्म खत्म हो गई लेकिन नजरें स्क्रीन से हटती नहीं ! ठहरती ठहरती सी कहानी है, पेंच भी हैं तो उतार चढ़ाव पठार सरीखे ही हैं मसलन रिटायरमेंट की कगार पर एक पुलिसिये का द्वंद्व !
बात करें क्या खटकता है पिक्चर में तो ट्रेनी जर्नलिस्ट रोहिणी जॉर्ज के वे अनडिस्क्लोज़्ड सोर्सेज जिनके हवाले से वह सब कुछ जान जाती है हिट एंड रन की सच्चाई के मुत्तालिक ! और अंत में "ए फिल्म बाई सुरेश एंड त्रिवेणी टीम" को बधाई देना बनता है !
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