"द कश्मीर फाइल्स" का हिट होना तो रिसर्च क्वालीफाई करता है ! 

फिल्म सुपर हिट जा रही है, निर्विवाद है लेकिन कुल जमा २० करोड़ की लागत से बनी फिल्म यदि कलेक्शन के फ्रंट पर २०० पार हो जाए तो कमाई के लिहाज से उसे ब्लॉकबस्टर कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है। कुल ग्यारह दिनों का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन का ब्रेक अप यूँ हैं - 

शुक्रवार     : ३.५५ करोड़ 

शनिवार     : ८.५० करोड़ 

रविवार      : १५.१० करोड़ 

सोमवार     : १५.०५ करोड़ 

मंगलवार    : १८ करोड़ 

बुधवार       : १९.०५ करोड़ 

वृहस्पतिवार : १८.०५ करोड़ 

शुक्रवार       : १९.१५ करोड़ 

शनिवार       : २४.८० करोड़ 

रविवार        :  २६.२० करोड़ 

सोमवार       :  १२.४० करोड़ 

टोटल          :  १७९.८५ करोड़ 

इस लो बजट फिल्म में कोई सुपरस्टार नहीं है, न कोई नाच गाना है और न ही एरोटिक सीन, इसका समर्थन करने वालों में कोई बड़ा नाम नहीं था , न इसके लिए मेगा मार्केटिंग कैम्पेन चलाया गया और न ही क्रिटिक्स ने इसकी तारीफों के पुल बांधे, इसकी अवधि भी खासी लंबी यानी तक़रीबन तीन घंटे है जो आजकल का ट्रेंड तो निश्चित ही नहीं है। 

तो फिर ऐसा कैसे और क्यों हो गया ? "जो हुआ सो हुआ" कहकर टाला तो नहीं जा सकता ! जो हो रहा है उसकी तो कल्पना ही किसी ने नहीं की थी ; सिनेमा बिरादरी के पंचों ने  पहले से ही मुनादी कर दी थी कि यह न तो चलने वाली है और न ही लोगों को पसंद आने वाली है।

ध्यान आती है सत्तर के दशक की फिल्म जय संतोषी माँ की ! कुल लागत थी मात्र ३० लाख और फिल्म ने तब आठ  करोड़ का बिजनेस किया था जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।  तब थियेटरों का ज़माना था, टिकटें मात्र २-३ रुपये की  हुआ करती थी ! सिनेमा हॉलों में तड़के ही कतारें लग जाती थी, वहीं पूजा अर्चना भी चालू  हो  जाती थी।  वैसा ही कुछ कमाल द कश्मीर फाइल्स कर रही है ; हालाँकि सब्जेक्ट डिफरेंट हैं ! तब दो ही फ़िल्में आल टाइम ब्लॉकबस्टर   कहलायी थी -  शोले और जय संतोषी मां ! लागत के अनुपात में  कमाई शोले से ज्यादा कर ली थी जय संतोषी मां ने जिसमें न कोई नामचीन कलाकार था , न ही कोई क्वालिटी थी फिल्मांकन की !  यदि वो  एक मिस्ट्री  थी तो द कश्मीर फाइल्स आज  मिस्ट्री ही लग रही है और उसी मिस्ट्री का पता लगाना है !       

डे वाइज कलेक्शन का एनालिसिस करें तो लॉ ऑफ़ इनक्रीजिंग रिटर्न अप्लाई हुआ है , दिन प्रति दिन और वीक एन्ड दर वीक एन्ड कलेक्शन बढ़ा है - सच यही है। जबकि  फिल्म परफेक्ट नहीं है ; हिंसा के विचलित कर देने वाले दृश्य हैं , भावना का उफान है और इसकी कहानी में कुछ जगहों पर रचनात्मक स्वतंत्रता भी ली गयी है।लेकिन फिल्म वही बताती है जो वास्तव में हुआ था। भारत में , जहां हिंदू बहुसंख्यक है, एक राज्य में हिन्दुओं को निर्ममता से मारा गया और अपने घरों से निकाल दिया गया ! सरकार मूक बनी रही क्योंकि उस राज्य के बहुसंख्यक  मुस्लिम वोट बैंक की तुष्टि जरुरी जो थी। 

हालांकि साधारण स्टारकास्ट और कम बजट में बनी ऐसी ढेरों फिल्में हैं, जो अपनी प्रसिद्धि और कमाई से आश्चर्यचकित करती रही हैं। इस दृष्टि से इस फिल्म की सफलता भी विशेष ना लगे  लेकिन  फिल्म निर्माण और इसकी रिलीज के बाद के हालात बताते हैं  कि "दि कश्मीर फाइल्स" को लेकर देशभर और दुनिया के कई हिस्सों में एक प्रकार की जो दिलचस्पी विगत दिनों में दिखाई दी है, उसे इंसाफ के लिए एकजुटता का नाम देना ज्यादा ठीक होगा। इंसाफ उन कश्मीरी पंडितों के लिए जो अपने समुदाय पर हुई ज्यादतियों के लिए ३२ साल से केवल इस बात की बाट जोह रहे थे कि आखिर कोई उनकी बात तो करे। बेशक, जो बड़े से बड़े नेता नहीं कर पाये या कोई दल नहीं कर पाया, वो एक फिल्म  कर दिखा पा रही है । लेकिन सवाल फिर वही ये हुआ कैसे? फिल्म के प्रति दर्शकों की दीवानगी इस कदर है या उक्त फिल्म को लेकर लोग इतने ज्यादा उत्सुक हैं कि सोमवार और अन्य कार्य दिवस को अपने काम-धंधे की परवाह न करते हुए उन्होंने फिल्म के लिए समय निकाला है।

फिल्म के प्रति दीवानगी की सबसे बड़ी वजह है पहले कभी शायद ही किसी फिल्म ने हिन्दुओं की समस्याओं पर इस हद तक जाकर  बात की है ! क्योंकि सच यही है कि भारत में आप सार्वजनिक रूप से हिंदुओं की समस्याओं पर बात नहीं कर सकते, अगर आपने की तो वो इंटेलेक्चुअल अंग्रेजीदां क्लास आपकी जमकर क्लास लगा देगी क्योंकि उनकी मान्यता है कि माइनॉरिटी से जुड़े मामलों पर बात करना बहुत अच्छा और प्रगतिशील होना है ! सोच है कि चूँकि अल्पसंख्यक अल्प हैं इसलिए वे कमजोर तबके के हैं और कमजोर तबकों के बारे में बातें करना अच्छा होता है। हिंदू बहुसंख्यक हैं , भले ही कहीं कहीं उनकी संख्या कथित "माइनॉरिटी" से कम ही क्यों ना हौ मसलन कश्मीरी हिंदू पंडित ; चूंकि ओवरऑल(पूरे देश में) वे संख्या में ज्यादा हैं इसलिए तयशुदा है कि वे मजबूत हैं और वे अल्पसंख्यकों पर दबदबा बनाकर रखते हैं। फिर अब तो पिछले आठ सालों से "हिंदू-हिंदू" करती पार्टी सत्ता में हैं ! सो हिन्दुओं के दबदबे वाले देश में हिन्दुओं के लिए कोई समस्या हो भी कैसे सकती हैं ? 

दरअसल बहुसंख्यक का कांसेप्ट ही गलत है !  वे जो देश में बहुसंख्यक है , आवश्यक नहीं है कि हर जगह, हर गांव, हर कोने में उनका बाहुल्य हैं। फिर हिंदू भारत में बहुसंख्यक हैं, लेकिन दुनिया की बात करें  तो वे सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं।  दूसरा एकमात्र देश सिर्फ नेपाल ही है जहाँ हिंदू बहुसंख्या में हैं। जब कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार हुआ और सरकारों ने अनदेखी की तो भरोसा हिला कि भारत उनका घर है ! यही बात "उन्हें" समझना पड़ेगा जो परस्पर वैमनस्य और उत्तेजना का अंदेशा जाहिर करते हुए कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों की इतनी बातें नहीं होनी चाहिए। 

सही मायने में हिंदुओं और मुसलमानों के बारे में बात करना मकसद फिल्म का नहीं था लेकिन बना दिया गया या कहें तो बन गया जिसके लिए तथाकथित इंटेलेक्चुअल क्लास जिम्मेदार है। उनका एतराज शायद सफल भी हो जाता यदि बात राजनीति के गलियारे तक ही परस्पर ब्लेम गेम की हद तक सीमित रहती ! लेकिन इस बार दर्शकों के मर्म को छू गया, वे भावुक हो गए, बहसें आम हो गयी ! नतीजन लोगों ने तमाम दावों प्रतिवादों और एतराजों को धत्ता बता दिया और जो हावी रहा वह सिर्फ और सिर्फ  हिन्दुओं का दर्द इस एहसास के साथ कि फिल्म देखना महज मनोरंजन नहीं है बल्कि एक कॉज को कंट्रीब्यूट करना है ताकि कल फिर कहीं किसी कोने में "बहुसंख्यक" होने का दंश ना झेलना पड़े ! 

यक़ीनन देश सेक्युलर है , सभी सम्प्रदाय के लोग रहते हैं लेकिन अतीत में सभी समुदायों को तकलीफें झेलनी पड़ी है जिनमें हिंदू भी शामिल है। ताकतवर "बहुसंख्यक" के चस्पे ने वास्तव में हिंदुओं को डरकर जीने के लिए मजबूर कर दिया और उनके सेक्युलर डर को हवा भी मिलती रही जब तब आतंकी धमाकों और घटनाओं से ! फ़िल्में भी आयी तो "उनकी" कहानियां ही आती रहीं ! 

अब सो कॉल्ड प्रोग्रेसिव लोग और वोटबैंक की राजनीति के वश तमाम नेता "द कश्मीर फाइल्स" को प्रोपेगंडा करार करने पर तुले हैं। लेकिन इस  बार उन्हें मुंह की खानी पड़ रही है ! उनका एक तरफा हमदर्दी दिखाने का फार्मूला एक्सपोज़ जो कर दिया है व्यूअर्स ने !                                  

निःसंदेह बीजेपी शासित राज्यों द्वारा फिल्म को  टैक्स फ्री किया जाना, अनेकों जगह टिकटों का मुफ्त बांटा जाना भी कंट्रीब्यूट कर रहा है फिल्म को इस मायने में कि अन्य भी जिज्ञासावश देख रहे हैं कि आखिर कुछ तो स्पेशल है ! फिर आशा के विपरीत माउथ पब्लिसिटी भी मल्टीप्लाई हो गयी इस बार ! 

कुल मिलाकर "द कश्मीर फाइल्स" एक ऐसी कहानी है जिसे कहना जरुरी था ! शायद पहली बार ऐसा हो रहा है कि टाइमिंग पर दोनों पक्ष ही स्कोर कर रहे हैं ! "एंटी" कहते हैं कि विवेक ने अपने प्रो रुख के लिए मोदी काल को एक्सप्लॉइट किया है और "प्रो" भी गदगद है कि इससे बढ़िया टाइमिंग हो ही नहीं सकती थी !        

और अंत में पूरी तटस्थता के साथ कहें तो दशकों तक कश्मीरी पंडितों के साथ हुई ज्यादतियों और उनके कश्मीर घाटी से उन्मूलन की सच्चाई को छुपाया गया और यही कारण है कि जब "द कश्मीर फाइल्स" के माध्यम से बातें कहीं गई, अतिशयोक्तिपूर्ण ही सही , व्यापक प्रभाव होना ही था ! फिर कथा सुनाने का फैसला जिनका है , कथा पर नियंत्रण भी उनका ही होगा ; कथा वही कही जायेगी जो उनको कहनी है !

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Prakash Jain

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