प्रोपेगेंडा कहो या आधा अधूरा सच, लोग देख रहे हैं "द कश्मीर फाइल्स" ! 

क्या कस्बे क्या ही शहर और क्या ही मेट्रो के थियेटर्स और मल्टीप्लेक्सेज, सीटीमार क्लास भी 'झुंड' में जा रही है और पिन ड्राप साइलेंस रखते हुए मसाला विहीन तक़रीबन तीन घंटे की पूरी फिल्म देख रही है ! तभी तो १२ करोड़ के  बेहद मामूली से बजट में बनी फिल्म मात्र छह दिनों में ८० करोड़ का कलेक्शन कर चुकी है और आंकड़ा  २०० करोड़ पार कर जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

कुछ सत्य है, कुछ अर्धसत्य है और बाकी जो है वह क्रिएटिव लिबर्टी के बहाने तथ्यों का डिस्टॉरशन है ऐसा आरोप लगाकर फिल्म को उत्तेजना और वैमनस्य फैलाने वाला एजेंडा सिनेमा करार दिया जा रहा है ! एकबारगी आरोप मान भी लें तो लाखों कश्मीरी पंडितों  के पलायन की सच्चाई को भी तो झुठलाना पड़ेगा ! चूँकि झुठलाया नहीं जा सकता तो सारे आरोप अतिरंजित ही है और अतिरंजना की वजह उनका एजेंडा है। जब एजेंडा कहते हैं तो यक़ीनन विवेक अग्निहोत्री ने भी एक एजेंडा के तहत ही फिल्म बनाई है जिसमें क्रिएटिव फ्रीडम लेते हुए वे अतिरंजित भी हुए हैं। 

कश्मीरी पंडितों पर अमानवीयता की हद तक ज्यादतियां हुई,कत्लेआम हुए, उन्हें घर छोड़ जाने के लिए मजबूर किया गया, घर घर के दरवाजों पर रलीव, तसलीव या गलीव (convert, get eliminated or flee; यां तो इस्लाम कबूल करो, यां निकल जाओ यां मरने के लिए त्यार रहो) लिख दिया गया था, मस्जिदों से लाउड स्पीकर्स द्वारा सतत यही मुनादी की जाती थी, जिन उदारवादी "उन्होंने" शरण दी पंडितों को उनकी मुखबरी कोई ना कोई पड़ोस का ही हमसाया मुखबरी कर ही देता था क्योंकि नीयत बद जो थी पंडितों की संपतियां हथिया लेने की ! क्या पुरुष , क्या तो महिलायें और क्या ही बच्चे ; किसी को भी बख्शा नहीं गया , मार डाला गया ! महिलाओं का रेप किया गया, बर्बरता इस कदर हदें लाँघ चुकीं थी कि पाक कुरान शरीफ का भी लिहाज नहीं रहा था ! 

विडंबना देखिये कत्लेआम हुआ हजारों पंडितों का लेकिन ऑफिसियल रिकॉर्ड हुआ मात्र २१९ का ! अरे ! इससे कहीं ज्यादा तक़रीबन हजारों की मौतें तो बदहाल रिलीफ कैंपों में हो गई थी ! आज बत्तीस सालों बाद भी अनेकों पंडित परिवार जम्मू के कैम्पों में रह रहे हैं !

तब राजनीतिक तुष्टिकरण की वजह से एक नैरेटिव गढ़ा गया था मकसद था हकीकत को दबाने का, कमतर बताने का ! फिर समानांतर दो नैरेटिव चलते रहे लेकिन हकीकत मुखर नहीं हो पाई, राजनीति हावी रही। आज जब एक फिल्म सत्य की परतों को उधेड़ने के साथ साथ छिपाकर और दबाने वाले कुत्सित विपरीन नैरेटिव का भी खुलासा कर रही है तो "हम" बनाम "वे" में "वे" दम भर कोशिश तो करेंगे ही ! तब भी लॉजिक उत्तेजना और वैमनस्य फैलाने का था आज भी वही है ! साथ ही सच्चाई को नकार नहीं सकते तो परस्पर पॉलिटिकल ब्लेम गेम भी चरम पर है ; कोशिश वही है मेरी कमीज तेरी कमीज से ज्यादा सफ़ेद हैं वरना हमाम में हम सब नंगे है ! जबकि पंडितों का विस्थापन किसी एक ख़ास पीरियड में ही हुआ था , ऐसा नहीं था।  वह तो साजिश के तहत एक सतत प्रक्रिया सरीखी चल रही थी ! बात सैतालिस से करें तो पांच लाख से ज्यादा पंडितों का पलायन हुआ।  

वो कहते हैं ना "सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से" तो बनावटी उसूल चिरस्थायी तो रह नहीं सकते थे। वही कर दिखाने की कोशिश में "द कश्मीर फाइल्स" अपने दमदार कथानक और कलाकारों के उम्दा अभिनय की वजह से सफल हो रही है। बॉक्स ऑफिस का आलम ये है कि हर दिन पिछले दिन का रिकॉर्ड तोड़ रहा है और इकॉनोमिक्स की भाषा में कहें तो "Law of Increasing Returns" अप्लाई हो गया है।  

फिल्म बिना किसी शोरशराबे के रिलीज़ की गयी थी, लोगों ने देखा तो सिर्फ दर्द का एहसास हुआ उन्हें, वितृष्णा हो रही थी तो वजह थी सिस्टम की कारगुजारियां और उस पोलिटिकल विल की घोर कमी जिनकी वजह से दशकों तक और अभी तक  एक अमानवीय त्रासदी के परिणामसवरूप विस्थापित हुए लाखों कश्मीरी पंडितों की घर वापसी नहीं हो पाई ! आपसी वैमनस्य और उत्तेजना फैलाने का काम तो दुष्चक्र है विपरीत नैरेटिव का ! वो कहते हैं ना उल्टा चोर कोतवाल को डांटे ! अब जब फिल्म सुपरहिट हो रही है तो स्पष्ट है "उनके" नैरेटिव की हवा निकल गई है। "उनकी" हस्ती दिनोंदिन मिटती जा रही है लेकिन 'वे" हैं कि मानने को तैयार ही नहीं है और गलत "इकबाल" बुलंद कर खुशफहमी पाले बैठे है - कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा ! 

हम कहाँ फंस गए दीगर बातों में ! बात करें फिल्म की सिनेमा के नजरिये से ! इन शार्ट बोले तो आनंद रंगनाथन को क्वोट करना बनता है  -

"No mindless sex or drugs or item songs with bikini-clad women astride buffaloes, just a forgotten story based on events that transpired a lost generation ago. And yet #TheKashmirFiles makes 80 crores in 6 days. Don't ever doubt or mock Indian audiences. Give them good content."

बात करें कथानक की तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक तरह से इतिहास की उन ‘फाइल्स’ को पलटने की कोशिश है जिनमें देश में वीभत्स नरसंहारों के चलते हुए सबसे बड़े पलायन की कहानी है। मेकर की रिसर्च इतनी तगड़ी है कि एक बार फिल्म शुरू होती है तो व्यूअर्स  फिर इससे आखिर तक बाहर निकल नहीं पाते। खासकर वे लोग तो भौचक्क रह जाते है जो गुजरात में हुए दंगों में मुस्लिम जनसंहार को जानते हैं, दिल्ली में हुए सिख जनसंहार को भी जानते हैं लेकिन कश्मीर में हुए कश्मीरी हिंदू पंडितों के नरसंहार से अनभिज्ञ थे ! तो क्रिएटिव डिपार्टमेंट को सौ में सौ मार्क्स देने बनते है; काटना हो तो ५ मार्क्स इस बात के लिए काटे जा सकते हैं कि फिल्म को टेक्निकली और बेहतर होना चाहिए था।परंतु लिमिटेशन थी बजट की और साथ ही बहुत हद तक हालात की भी ! 

अर्धसत्य है , तथ्यों के साथ छेड़छाड़ है ; कहते है कहने वाले तो सवाल है वे जो कहते हैं वो सत्य है तथ्य है क्या प्रमाण है ? सीधी सी बात है  राजनीतिक झुकाव से अलग होकर देंखे, तो इस फिल्म में कश्मीरी पंडितों पर हुए क्रूर अत्याचारों को देखना, मानवता और न्याय व्यवस्था को घुटने टेकते देखना दिल दहलाने वाला है। फिर बात इतिहास और पौराणिक कथाओं  की भी की गई है फिल्म में ! हालाँकि धारा ३७० के हटाए जाने के परिपेक्ष्य में पुष्कर नाथ पंडित का  बार बार प्लेकार्ड लेकर दिखाया जाना, २५ लोगों को लाइन में खड़ा कर मारे जाने के दृश्य में एक के बाद एक २५ गनफायर और गिरते लोगों का दिखाया जाना, पुष्कर नाथ के अनाज के ड्रम में छिपे बेटे का गोलियों से छलनी किया जाना, बहू शारदा को पति के खून से सने चावल खाने को मजबूर करना आदि दिल दहलाने वाली वीभत्स  घटनाओं में अतिरंजना की पराकाष्ठा है, इनसे बचा जा सकता था या संक्षिप्त रखते हुए प्रतीकात्मक भी रखा जा सकता था !   

दरअसल विवेक ने वर्तमान के नैरेटिव को बखूबी कनेक्ट किया है तब हुए कश्मीर पंडितों के विस्थापन से ! फिर क्रिएटिव लिबर्टी तो लेने का अधिकार है उन्हें ; कंट्रोवर्सी कोई पैदा करे तो वो कंट्रीब्यूट ही करता है फिल्म को कमर्सिअली भी और इमोशनली भी ! तथ्य डॉक्यूमेंट्री टाइप बनकर न रह जाएँ तो सिनेमेटोग्राफिक लिबर्टी ली गई है जिसे भले ही कोई डिस्टॉरशन कहें तो कहें वे भी स्वतंत्र हैं। मसलन फिल्म में फारुख अहमद डार उर्फ़ बीतता कराटे का इंटरव्यू दिखलाया गया है जब वह २० कश्मीरी पंडितों की हत्या कबूलता है।पाकिस्तान कनेक्शन बताता है कि अगर उसे अपनी मां या भाई का कत्ल करने का आदेश भी मिलता तो वह उनकी भी हत्या करने से नहीं हिचकता ! सिलसिला तो उसके टिक्कू की हत्या कर पहले ही शुरू कर दिया था। ये इंटरव्यू पूरा का पूरा रेप्लिकेशन ही तो है उसके द्वारा १९९१ में, जब वह हिरासत में था, इंडिया टुडे को दिए गए इंटरव्यू का ! 

‘बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता, जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता’ में झलकती बेचैनी ही तो तीन दशक बाद पुष्कर के चार मित्रों के कृष्णा के साथ बिठाये एक दिन के दौरान बाहर आती है। तब कितनी मज़बूरी थी उनकी, कशमकश थी लेकिन पलट कर वे हथियार उठा लेते क्या ? 

कुल मिलाकर एक कहानी, जो बहुत पहले कही जानी चाहिए थी, विवेक ने आखिरकार कह ही दी और अनफ़िल्टर्ड कह दी। सोने पे सुहागा हो गया वन टू आल कलाकारों का उम्दा अभिनय ! अनुपम खेर (पुष्कर नाथ ) एक अरसे बाद दिखे हैं और दर्द के दरिया में बहा ले जाते हैं। मिथुन चक्रवर्ती (ब्रह्म दत्त) ने अपने जीवन का बेस्टेस्ट परफॉरमेंस दिया है। कृष्ण पंडित के किरदार में दर्शन कुमार ने अतीत को वर्तमान से जोड़ने का शानदार काम किया है ; हाँ , स्टूडेंट के रूप में उम्र थोड़ी आड़े आती है लेकिन फिर जस्टिफाई होआता है क्योंकि वह तो ...एनयू का रिसर्च स्टूडेंट है और प्रेजिडेंट का उम्मीदवार है ! डार उर्फ़ बिट्टा कराटे बने चिन्मय मंडलेकर ने 'उफ़' क्या घृणा अर्जित की है ! उसका बार बार बायीं आँख झपकाना निश्चित ही उसके विलेन के रोल को विशेष बना देता है।  पुष्कर के अन्य तीन मित्रों के रोल में पुनीत इस्सर , प्रकाश बेलवाड़ी और अतुल श्रीवास्तव परफेक्ट बैठे हैं। दिल दहलाने वाले हादसों से गुजरती शारदा पंडित का यादगार रोल भाषा सुंबली ने बखूबी निभाया है।  वह स्वयं भी कश्मीर से हैं और शरणार्ती शिविर में दिन भी उसने गुजारे हैं। पल्ल्वी जोशी(प्रोफेसर राधिका मेनन ) भी वर्थ मेंशनिंग हैं !  

कुल मिलाकर कश्मीर का सच एक हैं।  बीते कई सालों से सब अपने अपने अंदाज में कश्मीर का सच कहते रहे हैं ! "द कश्मीर फाइल्स" ने भी एक अलग अंदाज में उसी एक सच को कहा है और ये अंदाज सभी अन्य पर भारी साबित हो रहा है ! आंकड़े तो यही बता रहे हैं। अब "वे" कह देंगे कि टैक्सफ्री कर दी है सो चल रही है ! ऐसा कहकर "वे" जनमानस की तौहीन  कर रहे हैं ! कोई सिर्फ इसलिए ३ घंटे स्पेयर नहीं करता कि सौ की टिकट ७२ रुपये में मिल रही है ! 

दर्द के एहसास के साथ साथ सुकून सा प्रतीत होता है जब आम कश्मीरी मुस्लिम भी तब हुए क़त्लेआम की तसदीक़ कर रहे हैं और तहेदिल से क्षमा भी माँग रहे हैं ! वैमनस्य ख़त्म होना ही है तभी तो घाटी से मुस्लिम भी द कश्मीर फाइल्स के समर्थन में आ रहे हैं। अब कोई फिल्म देखकर आये और हकीकत से मुंह फेरते हुए कहे कि फिल्म ने समाधान नहीं बताया तो हास्यास्पद ही है ! क्या बत्तीस सालों से वे इंतज़ार कर रहे थे कि विवेक अग्निहोत्री आएगा और समाधान बताएगा ? भई ! पिछले बत्तीस सालों में कत्लेआम को कमतर या छोटा बताने के बजाये समाधान किया होता तो मूवी समाधान दिखा देती !

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Prakash Jain

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