“बधाई हो “ का कोई सीक्वल तो नहीं है फिर भी प्रोडक्शन हाउस जंगली पिक्चर्स की ही दोनों “हो” और “दो” में कॉमन है यूनिक मुद्दों का उठाया जाना ! शायद दोनों फिल्मों के लेखकों में भी कोई एक कॉमन है। मिड एज प्रेगनेंसी का मुद्दा था बिन मांगे "बधाई हो" में जबकि बधाई मांगने वालों की "बधाई दो" एलजीबीटीक्यू कम्युनिटी की जद्दोजहद की बात करती है। कॉमन एक बात और भी है, वो है दोनों ही विषयों की बात सामाजिक और पारिवारिक ताने बाने में की गयी है चूंकि वर्जित भी तो परिवार और समाज ने ही कर रखा है !
लेकिन वर्जना का कारण समझने की कोशिश करें तो नीरा पाखंड ही नज़र आता है ; प्वाइंट ऑफ़ व्यू मिथलाजिकल हो या हिस्टोरिकल हो या फिर मॉडर्न ही क्यों ना हों ! समाज के तकरीबन हर क्षेत्र में, शिक्षा हो , राजनीति हो , कला हो ; तबका ऊँचा हो या नीचा ; गे और लेस्बियन का होना हर काल में रहा है और आसपास इस प्रवृत्ति के लोगों का एहसास भी हर किसी को कभी न कभी हुआ है, जिनका ज़िक्र भी क्लॉज़ेट में खूब होता रहा है !
गे हो या लेस्बियन, अधिकतर अपने अपने स्ट्रगल के साथ अपनी जिंदगी को दुनिया की नजरों से छिपाकर ही जी रहे हैं ! अनेकों शादीशुदा भी हैं और अपनी असलियत से कोम्प्रोमाईज़ कर लिया है, लेकिन अपने ओरिएंटेशन की हताशा में घुट घुट कर जी रहे है ! अब हर किसी का सोशल स्टेटस कर्ण जौहर, केशव सूरी,सव्यसाची, विक्रम सेठ, रोहित बाल, मनीष अरोड़ा, मानवेन्द्र सिंह , रितु डालमिया , दुत्ती चाँद , मानबी बनर्जी , सोनाली बोस, सोनल गियानी, अंजलि आदि सरीखा तो है नहीं कि वे अपनी सच्चाई बेख़ौफ़ रख सकें ! लेकिन स्वघोषित गे की तुलना में स्वघोषित लेस्बियन कम ही हैं ! वजह बगैर बताये ही जाहिर है !
इन्हीं तमाम कष्टकर स्थितियों से गुजरते हुए संभावित समाधानों की हलके फुल्के अंदाज में बेहतरीन किस्सागोई ही तो है फिल्म ! फिर कॉमेडी इमोशनल भी हो सकती है और शायद इसी से प्रेरित होकर चेंज आ जाए, सोच तो सकते ही हैं !
अनुराग कश्यप कैंप और हंटर फेम हर्षवर्धन कुलकर्णी की होमोसेक्शुएलिटी और इससे जुड़े हुए स्टिग्मा की बात करने वाली "बधाई दो" तमाम उन टॉक्सिक कंटेंट्स से डिफरेंट हैं जो पहले टॉपिक का मजाक उड़ाते हैं और फिर गंभीरता समझाने का ड्रामा करते हैं। साथ ही पहली बार बड़े पर्दे पर सेम सेक्स की रूमानियत को अलग अंदाज नहीं बल्कि उसी सहजता और खूबसूरती से परोसा गया है, जो ऑपोजिट सेक्स के बीच होती है। कुल मिलाकर विशिष्ट और ईमानदार स्टोरीटेलिंग ही है कि हर घुटन, हर हीनता, हर मानसिकता सहज और सरल दर्शती है !
बमुश्किल ही सही लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है, मुश्किलें और भी हैं ! गे या लेस्बियन शादी नहीं कर सकते लेकिन विडंबना देखिये तलाक जरूर मिल जाएगा यदि पार्टनर गे या लेस्बियन है तो ! चाइल्ड का एडॉप्शन भी गे या लेस्बियन के लिए वर्जित है भले ही कपल के रूप में गे पार्टनर्स या लेस्बियन पार्टनर्स लिव-इन में हों ! पिछले दिनों ही किसी वेब सीरीज में देखा था, शायद देवगन की "रूद्र" ही थी जिसमें महिला पुलिस अधिकारी को तलाक के बाद बच्चे की कस्टडी देने में हीलाहवाली इसलिए हो रही है चूंकि वह अपने लेस्बियन पार्टनर के साथ रह रही हैं जबकि वह कहती है कि हम दो दो माएं बच्चे का ज्यादा अच्छा ध्यान रख पाएंगी ! ऐसी ही सिचुएशन "बधाई दो" में भी आती है लेकिन बिल्कुल डिफरेंट तरीके से !
बात पुलिसकर्मी के गे या लेस्बियन होने की आई तो आर्मी को मंजूर नहीं है। पिछले साल ही किसी फिल्म में आर्मी के एक अफसर को समलैंगिक दिखाए जाने पर एनओसी नहीं दी गई थी ! चूंकि कहीं किसी पुलिस ने फिल्म पर आपत्ति दर्ज नहीं कराई है, मान लेते हैं पुलिस को मंजूर हैं ! मेकर्स के लिए सोने पे सुहागा हो जाता है यदि दमदार कहानी के किरदारों को एक्टर्स अपनी अदाकारी से जीवंत कर दें और यही हुआ भी है "बधाई दो" में ! होमो कॉप शार्दुल के रोल में मुच्छड़ राजकुमार राव ही हो सकता था ! जब पुलिस है तो सख्त है लेकिन अपने ओरिएंटेशन की वजह से असुरक्षा, डर और हिचक के भाव खूब ला पाते हैं वे मानों शार्दुल ठाकुर एक हकीकत है। वहीँ इमोशनल, सेंसिटिव और निडर "सुमि" भी सिर्फ और सिर्फ भूमि पेंढारकर ही बन सकती थी ! सुमि के पिता मिस्टर सिंह के किरदार में नितीश पांडे वर्थ मेंशनिंग है। एक तीस-बत्तीस वर्षीया बेटी के बाप की पीड़ा शायद उसके खुद के गे होने की ही है जिसे बिना जाहिर किये ही उसे जीना है ! और इसी पीड़ा को नितीश पांडे ने बखूबी उभारा है। सुमि और रिमझिम के कनेक्शन की पूरी यात्रा - उसके आकर्षित होने और दोनों के बीच का रोमांस और नोकझोंक भी- शायद नार्थ ईस्ट की चुम दरंग ही साकार कर सकती थी। उसकी स्पेशल हिंदी भी एडवांटेज ही है उसके लिए चूंकि किरदार की मांग है ! कुछ झलक उसकी पिछले दिनों ही गंगूबाई में देखने को मिली थी जिसमें उसके किरदार का नाम शायद ओरिजिनल "चुम" ही था ! फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट में सीमा पाहवा, लवलीन मिश्रा, शीबा चड्ढा सभी कहानी में रच बस गए हैं ! और गुलशन देवैया के क्या कहने ? वे आते ही हैं लेटर सेकंड हाफ में लेकिन छा जाते हैं !
म्यूजिक भी अच्छा है। तनिष्क बागची के संगीत में 'बधाई दो' का टाइटल ट्रैक मजेदार बन पड़ा है। 'बंदी टोट, हाय दिल पे कर गई चोट ....' और वरुण ग्रोवर का 'हम थे सीधे सादे' गीत फिल्मांकन के साथ-साथ कणर्प्रिय भी हैं। हालांकि संवादों की शालीनता का विशेष ख्याल रखा गया है, फिर भी कुछेक बोलचाल में डबल मीनिंग टाइप का आभास दे ही देते हैं और कुछेक अक्खड़ से भी हैं मसलन "तेरा भविष्य क्या है ? गणित की टीचर बन जाती, साइंस पढ़ाती ; पीटी टीचर बन गयी, उसकी तो ट्यूशन भी नहीं लगती "........."वक्त रहते कर लो बच्चा, हमको देखो .. first night single shot job done".... ."छोटा नहीं है"..... ! लेकिन कुछेक दमदार पंचेज भी हैं मसलन शार्दुल एक सीन में कहता है कि वो पुलिसवाला है, मगर पुलिस से सबसे ज़्यादा डर उसे ही लगता है क्योंकि वो गे पुलिसवाला है ! शार्दुल के ही एक संवाद ने तो पूरी फिल्म की थीम ही बयां कर दी हैं - " क्योंकि जब आप एक मिडल क्लास फैमिली से आते हैं और गे हैं, ये चीज़ आप पूरी दुनिया के साथ अपनी फैमिली को भी नहीं बता सकते। क्यों? क्योंकि वो नहीं समझेंगे !"
कुल मिलाकर ‘बधाई दो’ एक सेंसिबल फिल्म है, एक कॉज़ है जिसके लिए फोकस अंत तक बनाये रखा गया है। सब्जेक्ट को लेकर ईमानदार कोशिश है और इस बात को अवश्य कंट्रीब्यूट करेगी कि लोग नजरिया बदलें !
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