मराठी फिल्मों में नाम है नागराज मंजुले का बतौर एक्टर , निर्देशक और प्रोड्यूसर भी ! अनपॉज़्ड : नया सफर के पाँच चैप्टरों में से एक "वैकुण्ठ" के वैकुंठ मंजुले ही हैं जिसने व्यूअर को जहाँ एक ओर कोविड जनित वास्तविक दुःख तकलीफ से रूबरू करवाया वहीं उस दौरान उन कोरोना वारियर्स पर फोकस किया जिनकी किसी ने बात ही नहीं की थी ! वे अनाम वारियर्स हैं लाश जलाने वाले ! और तो और मंजुले ही राइटर, निर्देशक और निर्माता भी थे उस लघु कथा के ! अब "झुंड" जो आयी है उसके भी राइटर, डायरेक्टर मंजुले ही हैं , निर्माताओं के "झुंड" में भी वे शामिल है और एक्टरों में भी बतौर गेस्ट आर्टिस्ट शुमार हैं।
लोगों की उम्मीदों पर मंजुले शत प्रतिशत खरे उतरे हैं। नाम जरूर झुंड है लेकिन फिल्मों और वेब सीरीज के झुंड से अलग है ये "झुंड" फिल्म ! यूँ तो खेलों के कोच पर बेस्ड कई बेहतरीन फ़िल्में मसलन 'चक दे इंडिया','गोल' आदि पूर्व में आयी हैं लेकिन "स्लम सॉकर" की नींव डालने वाले प्रोफेसर विजय बारसे के करैक्टर से इंस्पायर्ड "झुंड" की डिटेलिंग, म्यूजिक आदि सब कुछ बहुतों को लुभाएगा ब्रांड "मंजुले" जो है लेकिन वो दिन अभी दूर है जब ब्रांड ब्लॉक्बस्टर की गारंटी बनेगा क्योंकि बॉलीवुड के दस्तूर से अलग जो है। कहते हैं आस है तो विश्वास है; कुछ फ़िल्में इस सरीखी और आएँगी और निश्चित ही व्यूअर्स की पसंद बदलेगी !
झुंड कहानी है झुंड को टीम में तब्दील करने की ! एक झुंड लक्ष्य हीन हो सकता है लेकिन टीम नहीं ; कहते हैं ना क्या टीम वर्क था ! टीम या टीम वर्क प्रशंसा पाती है हार हो या जीत हो ! वहीँ झुंड हावी भी हो जाए, हिक़ारत ही पाता है !
नागपुर के एक सेवानिवृत्त खेल शिक्षक विजय बरसे ने साल २००१ में स्लम सॉकर नामक एक गैर सरकारी संगठन की स्थापना की। वे सड़क पर रहने वाले बच्चों को ड्रग्स और अपराध से दूर रखकर, उन्हें सॉकर खिलाड़ियों में बदलकर और पूरी टीम बनाकर उनका पुनर्वास करने में कामयाब रहे थे और उन्हें इसके लिए पत्नी और बेटे का भी पूरा सहयोग मिला था। अपने घर के पिछवाड़े की झोपड़पट्टी में वंचित लड़कों को फुटबॉलनुमा डब्बे से खेलते हुए देखा और स्टेट लेवल झोपड़पट्टी फुटबॉल टूर्नामेंट से लेकर राष्ट्रीय स्तर टूर्नामेंट आयोजन के बाद होमलेस वर्ल्ड कप तक अपने इन वंचित खिलाड़ियों को लेकर गए। उनकी इसी यात्रा को यथोचित वैचारिक स्वतंत्रता के साथ मंजुले ने ईमानदारी के साथ परदे पर उकेरा है !
फिल्म अपेक्षाकृत विशेष लंबी है, मंजुले काफी डिटेल्स में गए हैं और तदनुसार दृश्य भी खूब लंबे क्रिएट किये हैं ! ऐसा नहीं है कि सीन जमते नहीं है लेकिन जब एक ही किस्म की फील बार बार रिपीट होती है, सीन बोझिल से हो जाते हैं।
बतौर सिनेमा "झुंड" खूबसूरत है अपने किरदारों की बदौलत; स्लम के रियल लोग हैं वे इसलिए उनका राउडी अवतार एकदम नेचुरल है। मंजुले का कमाल ही है कि कभी कैमरे का सामना नहीं किया लेकिन जब किया तो हर किरदार ने-क्या बच्चा , क्या किशोर , क्या ही युवा लड़का या लड़की और क्या ही बढ़े बुजुर्ग- खूब जिया अपने रोल को ! और जो भी गिनती के एक्टर्स लिए, रोल में डूबने की हद तक ढल जाना ही उनकी यूएसबी है फिर वो सैराट फेम रिंकू राजगुरु मोनिका के किरदार में हो, सैराट फेम ही आकाश थोसर सम्भया के रोल में हो, स्थापित मराठी एक्टर किशोर कदम स्कूल के फुटबॉल कोच के किरदार में हों या फिर नवोदित विक्की कादियान विजय बरसे के बेटे अभिजीत के रोल में हो, डेब्यू अंकुश गेदाम अंकुश डॉन के रोल में हो या फिर महानायक अमिताभ बच्चन ही क्यों ना हो मुख्य किरदार विजय बरसे के रोल में !
स्पेशल मेंशन बनता है भावना की सद्भावना के लिए जिसे एक अन्य मराठी बाला सायली पाटिल ने निभाया है।
स्वयं मंजुले का भी गेस्ट अपीयरेंस है बस्ती के लैंड ग्रैबर के रोल में ! उनका पिछले दिनों अनपॉज़्ड के अंतिम चैप्टर 'वैकुंठ' के वैकुण्ठ का रोल तुरंत स्मरण हो उठता है कि यदि वे स्वयं विजय बरसे बनते तो भले ही कमर्शियल वैल्यू नहीं मिलती लेकिन आर्ट वैल्यू अवश्य मिलतीं ! फिर चूँकि फिल्म २०००-२००६ के कालखंड की है तो वर्तमान उम्र और कद काठी के लिहाज से भी विजय बरसे का किरदार उनको शूट कर जाता ! इरादा अमिताभ बच्चन को कमतर बताने का नहीं है, उन्होंने तो एक बार फिर यादगार अभिनय किया है खासकर अदालत में उनका मोनोलॉग अविस्मरणीय रहेगा। उनका उम्रदराज होना भी नहीं अखरता फिल्म में ! और आम किरदारों के बीच वे अपनी महानायक वाली छवि बिलकुल झलकने नहीं देते !
हालांकि मंजुले अपनी पक्षधरता दिखाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। कई छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से वे लगातार सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणियां करते हैं, फिल्म में "जय भीम" का नारा गूंजता है, बाबा साहेब आंबेडकर के विशाल चित्र को प्रणाम करते अमिताभ बच्चन हैं ! पिछले दिनों सीएए के मुद्दे में उठे कागज़ का दर्द भी मंजुले सलीके से छेड़ ही देते हैं। ग्रामीण अनपढ़ माता-पिता की बेटी बनी रिंकू (मोनिका) जब पासपोर्ट बनवाने के लिए भटक रही होती हैं तो सिस्टम की पोल खोलता हुआ एक व्यक्ति कहता है, यहां आदमी की पहचान के लिए जीते-जी भी कागज चाहिए और मरने के बाद भी कागज से ही पहचान होती है ; सामने जिंदा आदमी की अपने आप में कोई पहचान नहीं है।
उन्होंने प्रतीकों का भी बखूबी उपयोग किया है मसलन स्लम से निकले लड़कों का, लोगों का बॉउंड्री वॉल पर बैठे रहना और बार बार फांदकर ही उस जगह प्रवेश करना जहाँ ADMISSION PROHIBITED का बोर्ड लगा हुआ है !
एक और ख़ास बात, मंजुले की झुग्गी झोपड़ी बस्ती कॉस्मोपॉलिटन है जहां सरदार है तो तीन तीन बच्चों की मुस्लिम मां भी फुटबॉल खिलाड़ी है जो हिजाबी नहीं है ! म्यूजिक की बात करें तो जोशीला है, टैंपो हाई है जो फिल्म के अनुरूप ही है , फिर मराठी छाप जो है जिसके लिए डुओ अजय अतुल का नाम भी है। एक जगह लड़के लड़कियों के झुंड द्वारा बीट का अद्भुत नजारा पेश कराया गया है, जिसके हाथ में जो है उसी से सामने जो है उसे जोर से पीटता है लेकिन लय में !
और अंत में एक और अद्भुत संयोग की बात कर लें ! बड़े परदे पर अमिताभ बच्चन का एक लोकप्रिय नाम हमेशा "विजय" रहा है और इस फिल्म में तो असली किरदार ही टीचर "विजय" बरसे का है ! फर्क है तो अमिताभ वाले विजय और वास्तविक विजय के तेवर का ! विजय बरसे तमाम समस्याओं को नियमानुसार दायरे में रहकर सुलझाता चला जाता है। समस्या कागज़ की है, लिंग भेद की है, गरीबों उपेक्षितों की हैं, छोटे मोटे अपराध, लूट और नशे में फंसे स्लम युवाओं की है, पैसों की है, लेकिन सभी समाधान पाती है चूँकि कॉज बड़ा है, महान है !
हर हाल में फिल्म देखना बनता है भले ही बीच बीच में बोझिलता का आभास होता रहे ! देखना इसलिए भी बनता है कि बॉलीवुड के बनावटी राउडी (ROWDY) नहीं है और ना ही ओवर एक्टिंग करते टॉलीवुड के फायरब्रांड स्टार है ! जो भी हैं, छोटे बड़े सभी स्वाभाविक हैं, घटनाएं भी अतिरंजना लिए नहीं है, चीजें बदलती हैं , बाधाएं हट रही हैं, लोग समझ रहे हैं, यही तो भविष्य का सिनेमा होना चाहिए !
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